तुम्हारी कोई तस्वीर
अब मेरे पास नहीं है,
आंखों में कुछ धुधले प्रतिबिंब है
किंतु उनसे
तुम्हारी छवि नहीं बन सकती,
तुम्हें भूल पाना श्रृष्टि का
सबसे कठिन कार्य प्रतीत होता है
एक छड़ सोचता हूं
"कि तुम्हारी छवि कैसी दिखती है ?"
यह भूल चुका हूं,
लेकिन प्रेम की छवि
जो हृदय में उतर चुकी है
वो क्यों नहीं भूला जाता?
तुम्हें सोचने से पीड़ा क्यों मिलती है?
क्यों उस पीड़ा में सुकून मिलता है?
ख्वाबों से तो हर रोज मिलता हूं,
फिर तुम्हारा मिलना
क्यों ख्वाब नहीं हो जाता?