गले अंगड़ाइयों को लगाया, वो आई,
सिमटकर मेरी नींद उसकी बाहों में सो आई,
न उसने जगाया, न मेरी नींद टूटी,
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
रामपुर में बैठा छूरी ही ले आया,
अमरूद बड़े सस्ते मिले, तो काटकर खाया,
बरेली की बर्फी ने चखाया स्वाद अनूठी,
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
किस्मत ने लकीरों का स्लेट बनाया,
लिख चाक से उसका–मेरा नाम सजाया,
स्लेट फिर भी मिट्टी की, गिर ज़मीन पर फूटी,
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
मेरा इरादा था उसके पास जाने का,
कि राहें ही ढूंढ लेतीं बहाना बुलाने का,
खैर छोड़ो, क्यूँ पालूं उम्मीद झूठी?
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
उसने अपनी रूह को मुझे दे डाला,
मैंने सांसों से बढ़कर उसे सम्हाला,
हम चैन से थे, सुबहों ने अचानक रात लूटी,
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
इशारों में बात करते थे दिल पहले भी,
लफ्ज़ कुछ न कहे, या कह ले भी,
हट उसकी हाय! मुझसे बिन बात रूठी,
लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।
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🌿 Written by Rishabh Bhatt 🌿
(Author of Mera Pahla Junu Ishq Aakhri, Unsaid Yet Felt, Sindhpati Dahir 712 AD and more books, published worldwide)
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion
लफ़्ज़ों के पीछे का सफ़र
कभी–कभी ज़िंदगी हमें दो रास्तों पर खड़ा कर देती है। एक वो जो दिल चाहता है, और दूसरा वो जिसे हालात हम पर थोप देते हैं। ऐसा ही लम्हा तब आया जब मैं रामपुर स्टेशन पर था। सामने लाल कुआं जाने वाली ट्रेन खड़ी थी — वही जगह, जहाँ मेरा दिल जाना चाहता था। मगर वक़्त मुझे कहीं और बुला रहा था। दिल और हालात के बीच खींचातानी इतनी बढ़ गई कि मैंने जेब से एक सिक्का निकाला। सोचा, जो नसीब में होगा, वही सामने आएगा।
सिक्का उछला, गिरा… और जवाब वही आया, जिसे मेरा दिल हरगिज़ नहीं चाहता था। उस पल ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी धड़कनों को मुठ्ठी में कस लिया हो। ट्रेन धीरे–धीरे सीटी बजाकर आगे बढ़ गई, और मैं वहीं प्लेटफ़ॉर्म पर ठिठक गया। नज़रें पटरियों पर टिकी थीं, लेकिन दिल जानता था कि उस ट्रेन को छोड़कर मैंने अपनी मोहब्बत से शायद कई सालों की दूरी चुन ली है।
मैं भारी क़दमों से स्टेशन की एक बेंच पर जा बैठा। जेब से डायरी निकाली, और हाथ अपने आप चलने लगे। लिखा — “लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।” यही लफ़्ज़ मेरे जज़्बातों का सहारा बन गए। जैसे इंसान जब अपनी मंज़िल खो देता है तो दिल को तसल्ली देने के लिए बहाना ढूँढ़ता है, उसी तरह ये लफ्ज़ मेरे लिए एक बहाना थीं।
उस दिन समझ आया कि हर सफ़र सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने के लिए नहीं होता। कभी–कभी सफ़र हमें ये सिखाने के लिए भी होता है कि मोहब्बत हमेशा मिलना नहीं, बल्कि महसूस करना है। लाल कुआं की उस ट्रेन को छोड़ना मेरे लिए दर्द भरा था, मगर उसी ने मुझे ये लफ़्ज़ दिए — “लाल कुआं जाने वाली बस अभी ट्रेन छूटी।” शायद यही मेरी तसल्ली थी, कि जो पल मैंने खोया, वही मेरी लिखावट में हमेशा के लिए जी उठा। मोहब्बत मुझसे दूर सही, मगर मेरी क़लम में क़ायम रही।
🌿 Written by Rishabh Bhatt 🌿
About the Author
ऋषभ भट्ट एक ऐसा नाम है जो जज़्बातों को अल्फ़ाज़ में ढालना जानता है।
हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू – तीनों ज़ुबानों में लिखते हुए इन्होंने मोहब्बत, तन्हाई, ख्वाब, जज़्बा और इतिहास जैसे रंगों को अपनी किताबों में समेटा है।
अब तक के सफ़र में इन्होंने 9 किताबें दुनिया के सामने पेश की हैं –
“मेरा पहला जुनूँ इश्क़ आख़िरी”, “Unsaid Yet Felt”, “सिंधपति दाहिर 712 AD”, “नींद मेरी ख्वाब तेरे” जैसी किताबें उनके नाम को एक अलग पहचान देती हैं।
पेशा से इंजीनियर, लेकिन रूह से शायर, उनकी किताबें सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं बल्कि दिलों की धड़कन हैं।
आज उनकी रचनाएँ Amazon, Flipkart, Google Play Books, Pothi.com और Notion Press जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स पर दुनिया भर के पाठकों तक पहुँच रही हैं।
✨ सफ़र अभी जारी है… और अल्फ़ाज़ की ये कहानी आने वाले वक्त में और भी किताबों का रूप लेगी।