हूं सोचता कभी कभी
ये कुदरत-ए-वफ़ा पे ज़िद,
पल रही है शाम सी
ये वक़्त-ए-वफ़ा पे ज़िद,
नाराज़गी - तकल्लुफी
है आज भी कभी कभी,
भली सी एक शक्ल थी
नाराज़ भी कभी कभी।
तो रश्क़-ए-शमां में
वो ज़िद लिए पहुंच गई,
मैं इश्क़-ए-जहां कहूं
वो काफ़िरी कहे नई,
मैं इश्क़ को ख़ुदा कहूं
वो बंदिस-ए-वफ़ा नई,
खफ़ी-खफ़ी सी एक दिन
चली लिए सुकून की शमां कई
भली सी एक शक्ल थी...
मुस्तक़िल मैं इश्क़ में
वो दूरियों में मुस्तक़िल रही,
क़फ़स सही भली-भली
ये अश्क़-ए-वफ़ा नहीं,
नहीं सही ज़नम-ज़नम
ज़िऊं तुझी पे मैं मरुं,
ये वक़्त-ए-हवस़ तेरी
भला ज़रा मैं क्या करूं?
वो नज़्म सी ठह़र गई
आवाज़ में अभी अभी,
भली सी एक शक्ल थी
नाराज़ भी कभी-कभी।
किताब : कसमें भी दूं तो क्या तुझे?
यह कविता लोकप्रिय शायर अहमद फ़राज़ जी द्वारा लिखी गई नज़्म ‘भली सी एक शक्ल थी’ से प्रेरित होकर लिखा गया एक प्रयास है। इसका उद्देश्य किसी भी प्रकार का कॉपीराइट उल्लंघन करना नहीं है।
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion