हक है मेरा तुझपे
फजीहत क्यूं करती है ज़िन्दगी ?
मैं देखता हूं तुझे
तो औरों के आंखों की मरती है क्यूं ज़िन्दगी ?
तुझमें कोई रम्ज़ है
जिसको भाती है ज़िन्दगी,
नुक्स ज़माने की लेकर
मेरे पास क्यूं आती है ज़िन्दगी ?
ख्यालात इक ज़हन में...
है क्यूं डरी ज़िन्दगी ?
जब मैं तेरा हूं
और तुम हो मेरी ज़िन्दगी,
हो गई इतनी जवां
कि इश्क़ से रवां लेती नहीं ज़िन्दगी,
मांगता हूं तुझे
फिर क्यूं मुझे देती नहीं ज़िन्दगी ?
मुद्दत-ओ-शौक में
तुम-ही-तुम हो बसी ज़िन्दगी,
सोचता हूं मेरे हर ग़म की
तुम-ही-तुम हो खुशी ज़िन्दगी,
हैरतअंगेज ज़माने की कहानियों में
बड़ी मगरुर है ज़िन्दगी,
इतनी ! कि आज मैं तुझसे
और तू मुझसे दूर है ज़िन्दगी।
- S. Rishabh Bhatt