जिस्म–ओ–जहां का अजीबो-गरीब घर है,
न जाने उसके साए की कितनी उमर है?
बेखौफ कत्ले–आम करती थी निगाहों से जो,
मौत का नहीं मुझे उस पर इल्जाम का डर है,
मेरे यादों में रहती है छोड़–छाड़ घर बार अपना,
मेरे पास ही आ कर रहे उससे बेहतर है,
लहू के कतरे–कतरे में बोया हूं जिसे,
क्या उसकी गिरेबान में भी मेरी गुजर है?
मोहब्बत की चारदीवारी में कैद न हो,
उसकी आजादी का कैसा बसर है?
दौड़ते होंगे मुसाफिर राह ए मंज़िल की ओर,
मंजिले–इश्क में मेरी ठहर है,
ये रंगों को सजाया है किसने तस्वीर में?
उसकी हकीकत के आगे लगते तर बितर हैं,
साहिल की तलाश में भटका भंवर में जो,
उस मांझी की नाव ही शायद जर्जर है,
वो जिसका होना ही कोई ख्वाब है,
उसके ख्वाबों का भला कैसा मंजर है?
मेरे दिल में पनाह है उन दिलासों की,
जिन्हें पूरी होती दिखाई देती उम्मीदों की सबर है।
किताब : कसमें भी दूं तो क्या तुझे?
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion