वो रुखसार यूं शबनम हो गई,
के मेरे आँखों की चमक मद्धम हो गई,
वो जिसका होना ही इरशाद था कोई,
बग़ैर सितम के भी सैकड़ों ग़म हो गई,
उसका इश्क़ था पीर की हिदायत,
बदलने से रास्तों के ज़ख्म हो गई,
मुसतफ़ा के ज़िंदगी भर की कमाई,
यूं अचानक चोरी की रकम हो गई,
गुलज़ार थी उसकी आँखें, गुलबहार जिस्म,
मौसमों के जैसे ढलते–ढलते कम हो गईं,
मुंतशिर घरों तक डाकिया पहुंच पाएगा क्या?
सुना है बग़ैर स्याही उनकी कलम हो गई,
ईमां की गहराइयों तक झांकके देखा सभी,
बिना फ़ूल के भी वो भरी मौसम हो गई,
ललक का क़त्ल खुद ही कर दिया मैंने,
बेवफ़ा जब मेरी सनम हो गई।
किताब : कसमें भी दूं तो क्या तुझे?
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion