भली सी एक शक्ल थी ; Part - 2

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हूं सोचता कभी कभी
ये कुदरत-ए-वफ़ा पे ज़िद,
पल रही है शाम सी
ये वक़्त-ए-वफ़ा पे ज़िद,
नाराज़गी - तकल्लुफी
है आज भी कभी कभी,
भली सी एक शक्ल थी
नाराज़ भी कभी कभी...
तो रश्क़-ए-शमां में
वो ज़िद लिए पहुंच गई,
मैं इश्क़-ए-जहां कहूं
वो काफ़िरी कहे नई,
मैं इश्क़ को ख़ुदा कहूं
वो बंदिस-ए-वफ़ा नई,
खफ़ी-खफ़ी सी एक दिन
चली लिए सुकून की शमां कई...
भली सी एक शक्ल थी.....
***
मुस्तक़िल मैं इश्क़ में
वो दूरियों में मुस्तक़िल रही,
क़फ़स सही भली-भली
ये अश्क़-ए-वफ़ा नहीं,
नहीं सही ज़नम-ज़नम
ज़िऊं तुझी पे मैं मरुं,
ये वक़्त-ए-हवस़ तेरी
भला ज़रा मैं क्या करूं ?
वो नज़्म सी ठह़र गई
आवाज़ में अभी अभी,
भली सी एक शक्ल थी
नाराज़ भी कभी-कभी।

- S. Rishabh Bhatt

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