Ki Aadmi Chand Pe Ja Pahuncha...
आज सुबह एक अजीब-सी खबर अख़बार में छपी—
कि आदमी चाँद पर जा पहुँचा...
वही ख़्वाबों का जहाँ,
आशिक़ों की आशिकी अपना ब्रह्माण्ड देखती है।
खबर आश्चर्यजनक थी, लेकिन सही थी...
चलो...
कोई बात नहीं,
अब हम चाँद के पार चलते हैं।
लेकिन मुझे क्या पता था
कि एक गीतकार के शब्दों ने
इसे भी मुझसे छीन लिया है...
अब तो मेरी भी ज़िद हो गई—
कि मेरा भी एक विरासत होगा,
जिस पर राज हुकुम-सा करेंगी...
हुकुम-सा??
अरे वहीँ...
जो हर शाम मुझे किसी चाँद पर मिलती हैं,
थोड़ी नटखट-सी...
और जब ज़ुल्फ़ों का झरना
अपनी अदाओं से झटकती है,
तो उसमें डूबने का मन करता है।
छोड़ो!!
एक समय था,
जब मेरे पास पाने के लिए कुछ नहीं था;
और आज मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं है...
तुम भी...
लेकिन यादों की वो असरफ़ी
जिस पर तुम्हारा भी हक़ नहीं है,
मेरे पास आज भी सलामत है।
गणनाओं के साथ दशकें बदलती रहीं,
लेकिन घड़ी की वो सुई
जिसे तुमने मुझे दिया था,
आज भी वहीं रुकी है...
कल तक एक उम्मीद भी थी
कि तुम यादों के झरोखे से लौटकर आओगी,
लेकिन मुझे क्या पता था
कि ख़्वाबों का ये परिंदा
सूरज भी निगल जाएगा।
छोड़ो!!
काफ़ी है...
कि आदमी चाँद पर जा पहुँचा।
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
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