मिलारेपा 📿 — ग्लानि से निर्वाण तक
— Rishabh Bhatt द्वारा रचित
इस ग्लानि भाव के चलते, जी–जी कर मरने वाला,
मृदुल हृदय यह मेरा, न जाने कब हो गया काला?
निज तात बन्धुओं को दे विष मैंने मारा,
बदले के ग्रस ने मति हर ली जैसे सारा,
नहीं प्रेम था मुझसे उनको, यह मैंने जाना,
संग रह रह कर भी, रहता था संग जिनके बेगाना,
मां की चिता जाली, क्रोध नयन में जागा,
असुरी विद्याओं के पीछे चित मेरा ये भागा,
धर्म–अधर्म, कर्म–कुकर्म, नहीं भान था मुझको,
हरकर प्राण पाप में डूबूंगा, नहीं ज्ञान था मुझको,
सो हर लिया व्याल का विष दे, प्राणों को उनके,
तुरत गरल ने मारा, रग–रग में शोणित सा भिन के,
जलूं ग्लानि की ज्वाला में तब से, लेता हर एक निवाला,
मृदुल हृदय यह मेरा, न जाने कब हो गया काला?
हे ईश! पात्र क्षमा का, न खुद को मैं मानू,
पर यकीन कि विनती सुनते तुम, यह भी तो जानूं,
इस मुक्ति के बदले मैं जीवन तुमको देता,
चुन–चुन कर संघर्षों को, हूँ दण्ड स्वयं चुन लेता,
रह जाने को सृष्टि में, मुझको कोई अधिकार नहीं,
मुझ पापी का जीवन, जिसका कोई उद्धार नहीं,
अर्थ मुझे दो मेरा, मैं परिचय अपना पाऊं,
अस्थि गरल कर ही चाहे, हत्या का मोल चुकाऊं,
द्रवित हृदय में आस लिए, दर–दर को फिरने वाला,
मृदुल हृदय यह मेरा, न जाने कब हो गया काला?
🌿 Written by Rishabh Bhatt 🌿
पंक्ति-दर-पंक्ति व्याख्या
1. "इस ग्लानि भाव के चलते, जी–जी कर मरने वाला..."
यह पंक्ति मिलारेपा की उस अवस्था को दर्शाती है जहाँ
अपने ही कर्मों के बोझ तले जीवन दंड बन जाता है।
वह जीवित रहते हुए भी आत्मिक मृत्यु का अनुभव करता है।
2. "मृदुल हृदय यह मेरा, न जाने कब हो गया काला?"
यहाँ मिलारेपा स्वयं से प्रश्न करता है —
एक संवेदनशील हृदय कैसे हिंसा और अंधकार से भर गया।
यह आत्मस्वीकार है, आत्मरक्षा नहीं।
3. "निज तात बन्धुओं को दे विष मैंने मारा..."
यह मिलारेपा द्वारा किए गए उन कर्मों की स्वीकारोक्ति है
जिनमें उसने प्रतिशोधवश अपने ही संबंधियों का संहार किया।
यहाँ ‘विष’ उसके विकृत मन और तांत्रिक विद्या का प्रतीक है।
4. "बदले के ग्रस ने मति हर ली जैसे सारा"
प्रतिशोध ने मिलारेपा की विवेकशक्ति को पूर्णतः ग्रस लिया।
पीड़ा ने उसे न्याय नहीं, विनाश का मार्ग दिखाया।
5. "नहीं प्रेम था मुझसे उनको..."
यह पंक्ति उस अपमान और तिरस्कार की स्मृति है
जिसने मिलारेपा के भीतर विद्रोह और क्रूरता को जन्म दिया।
संबंध रहते हुए भी वह अकेला था।
6. "मां की चिता जाली, क्रोध नयन में जागा"
माता की मृत्यु मिलारेपा के जीवन का निर्णायक क्षण है।
शोक ने करुणा नहीं,
बल्कि क्रोध और प्रतिशोध को जन्म दिया।
7. "असुरी विद्याओं के पीछे चित मेरा ये भागा"
यहाँ मिलारेपा के तांत्रिक साधना की ओर जाने का संकेत है,
जहाँ उसने शक्ति तो पाई,
पर शांति खो दी।
8. "धर्म–अधर्म, कर्म–कुकर्म, नहीं भान था मुझको"
यह अज्ञान की वह अवस्था है
जहाँ शक्ति विवेक से बड़ी हो जाती है।
मिलारेपा अपने पतन को बिना छुपाए स्वीकार करता है।
9. "जलूं ग्लानि की ज्वाला में तब से..."
हत्या के बाद का जीवन मिलारेपा के लिए
निरंतर जलती हुई ग्लानि बन गया।
हर क्षण पश्चाताप उसकी साधना था।
10. "हे ईश! पात्र क्षमा का, न खुद को मैं मानू"
यह क्षमा की याचना नहीं,
बल्कि स्वयं को अक्षम मानते हुए
ईश्वर की करुणा पर अंतिम भरोसा है।
11. "इस मुक्ति के बदले मैं जीवन तुमको देता"
मिलारेपा का तप, उपवास और कठोर साधना
इसी आत्मसमर्पण का रूप है —
जीवन को मोक्ष के लिए अर्पित कर देना।
12. "रह जाने को सृष्टि में, मुझको कोई अधिकार नहीं"
यह पूर्ण आत्मदंड की भावना है,
जहाँ मिलारेपा स्वयं को
जीवन के योग्य भी नहीं मानता।
13. "अर्थ मुझे दो मेरा, मैं परिचय अपना पाऊं"
यह आत्मबोध की पुकार है —
अपराधी से साधक बनने की यात्रा का प्रारंभ।
14. "द्रवित हृदय में आस लिए..."
अंतिम पंक्तियाँ मिलारेपा की मुक्ति-यात्रा को दर्शाती हैं,
जहाँ गहन पश्चाताप
करुणा और ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है।
महासिद्ध मिलारेपा : अपराध से निर्वाण तक

महासिद्ध मिलारेपा का जीवन यह सिखाता है कि मनुष्य अपने कर्मों से गिर भी सकता है और उन्हीं कर्मों की ग्लानि से उठकर परम शिखर तक पहुँच भी सकता है। उनका जन्म तिब्बत में हुआ, एक साधारण परिवार में, जहाँ प्रारंभिक जीवन सुख और अभाव के बीच बीता। पिता की मृत्यु के बाद, रिश्तों ने जो रूप लिया, उसने मिलारेपा के भीतर गहरे घाव छोड़ दिए।
अन्याय, अपमान और माँ के दुःख ने उनके मन में प्रतिशोध को जन्म दिया। वही प्रतिशोध उन्हें तांत्रिक विद्याओं की ओर ले गया, जहाँ शक्ति तो मिली, पर विवेक खो गया। अपने ही कर्मों से उन्होंने विनाश रचा, और जब क्रोध शांत हुआ, तब उनके सामने अपने किए का भयावह सत्य खड़ा था।
वह क्षण ही उनके जीवन का मोड़ बना। जिस हाथों से हिंसा हुई थी, उन्हीं हाथों ने क्षमा की याचना भी की। ग्लानि ने उन्हें गुरु मार्पा तक पहुँचाया, जहाँ साधना तपस्या नहीं, बल्कि आत्मशोधन की प्रक्रिया बनी।
मार्पा द्वारा दी गई कठोर परीक्षाएँ मिलारेपा के लिए दंड नहीं थीं, वे उनके कर्मों का प्रायश्चित थीं। एकांत, उपवास, और निरंतर साधना ने उनके भीतर बसे अंधकार को धीरे–धीरे करुणा और ज्ञान में बदल दिया।
मिलारेपा का जीवन इस सत्य का प्रमाण है कि मोक्ष किसी जन्मसिद्ध पवित्रता का फल नहीं, बल्कि गहन पश्चाताप और पूर्ण समर्पण का परिणाम है। वे हमें यह विश्वास देते हैं कि चाहे पाप कितना ही गहरा क्यों न हो, यदि स्वीकार सच्चा हो, तो मुक्ति का द्वार कभी बंद नहीं होता।
संपूर्ण सार
यह रचना महासिद्ध मिलारेपा के जीवन के उस पक्ष को सामने रखती है जहाँ मनुष्य अपने ही कर्मों के परिणामों से टकराता है। कविता के माध्यम से उनके भीतर की ग्लानि, पश्चाताप और आत्मस्वीकार को व्यक्त किया गया है, जो अंततः साधना और मुक्ति की यात्रा का आधार बनता है।
मिलारेपा का जीवन यह स्पष्ट करता है कि शक्ति और प्रतिशोध क्षणिक संतोष तो दे सकते हैं, पर अंततः वे मनुष्य को भीतर से तोड़ देते हैं। जब विवेक लौटता है, तब अपराध-बोध मनुष्य को स्वयं से प्रश्न करने के लिए विवश करता है। यही प्रश्न आत्मबोध की पहली सीढ़ी बनता है।
इस रचना में दंड को बाहरी व्यवस्था नहीं, बल्कि अंतर्मन की प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। मिलारेपा स्वयं को दंडित करते हैं, अपने कष्टों को स्वीकार करते हैं और उन्हें साधना का माध्यम बनाते हैं। यही स्वीकार उन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
संपूर्ण रचना यह संदेश देती है कि मोक्ष किसी विशेष व्यक्ति का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि हर उस मनुष्य की संभावना है जो अपने कर्मों से भागता नहीं, बल्कि उनका सामना करता है।
मिलारेपा का जीवन और यह रचना आज के मनुष्य को यह विश्वास दिलाती है कि पतन अंतिम सत्य नहीं होता। यदि आत्मस्वीकार सच्चा हो और साधना ईमानदार,
तो सबसे अंधेरे मार्ग से भी मुक्ति की दिशा निकलती है।
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