ओ चाँदनी— मुझको बता क्यों मौन है?
मेरे हृदय की प्यास में,
सागर बनी इक बूँद सी,
उठती लहर अज्ञान की,
तुम ज्ञान के शाखा अमर,
मेरी उमर तुझमें जिए,
मुझको बता तू कौन है?
कुछ रुनसुनाती रंग में,
बन के तरंग तुम चल रहे,
फिर छल रहा क्यों जग मुझे?
तुम कल रहे, तुम कल रहे।
तुम साधना की शक्ति हो,
सन्दर्भ के तुम भक्तित हो,
तुम ज्ञान के प्रारम्भ हो,
अनन्त के तुम अंत हो।
तुम चेतना के आदि हो,
तुम योग के अनन्त हो,
तेरे चरण में शीष ले,
तुमको नमामि, तुमको नमामि।
तुमको हृदय आशीष दे,
बुद्धम शरणं गच्छामि।
आगे कवि अनुभव करता है कि अज्ञान की लहरों में भी ज्ञान का अमर शाखा विद्यमान है। यह शाखा उसे बुद्ध की ओर ले जाती है — जहाँ उम्र, जीवन, और चेतना सब शांति पाते हैं। कविता की धारा में एक प्रश्न बार-बार उठता है: “मुझको बता तू कौन है?” यह प्रश्न केवल बुद्ध से नहीं, बल्कि आत्मा से भी है — साधक स्वयं से यह जानना चाहता है कि वह कौन है और उसका मार्ग क्या है।
कविता का मध्य भाग साधना और योग की शक्ति पर केंद्रित है। कवि स्वीकार करता है कि बुद्ध केवल उपदेश नहीं, बल्कि स्वयं साधना की शक्ति, भक्ति का संदर्भ, और ज्ञान का प्रारम्भ हैं। वे अनन्त हैं और अनन्त का अंत भी वही हैं। इसीलिए बुद्ध चेतना और योग के आदि और अंत दोनों हैं।
अंतिम भाग समर्पण और नम्रता का है। कवि शीष झुकाकर कहता है: “तुमको नमामि, तुमको नमामि” और अंततः अपनी वाणी और आत्मा से कहता है: “बुद्धं शरणं गच्छामि”। यह वाक्य संपूर्ण कविता का सार है — अज्ञान, दुख और मोह से मुक्त होने का मार्ग केवल बुद्ध की शरण में है।
“बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि” — यह त्रिशरण मंत्र आज भी साधकों के जीवन में मार्गदर्शक है।
कविता के भाव इन्हीं सिद्धांतों से जुड़े हैं — जब अज्ञान, पीड़ा और मोह छा जाता है, तो बुद्ध का स्मरण साधना का दीपक बन जाता है।