बन करके मेरे पुरसिस में पहनाई,
तूं न आई...
होने को ढ़ाई साल आए
मगर तूं न आई...
इक ख़्वाब लफ्ज़ो की झाड़ियों में
गुलमोहर की तरह
होंठों पर पनपने लगी,
सिमटने लगी बाहों में तन्हाईयां
यूं शाम धीरे-धीरे ढलने जा रही थी,
गुनगुनाती राग में जुगनुएं
चांद को अपने फलक में ढ़क रही
नाकाम कोशिशें दोहरा रहीं थीं,
मेरी भी कोशिश थी
इक जरिया जिद-ओ-जहन में पाने की,
पैग़ाम सा भरकर जहन को इश्क़ में
अश्क की दरिया डुबाने की,
नज़्म नस्लों से भरें तेरे रूह को
छूने की कोशिशें करती
सुबह-ओ-शाम, फिर भी
पर परिंदों के शहर से लौट आती
पैग़ाम ले, तेरी ख़बर न आज भी...
तेरी गली में तालाश का
ये सिलसिला वर्षों चला,
हर मोड़ पर, कई मिलें... कई गयें...
मगर तुझ सा अंदाज हरगिज़ न छाई,
बन करके मेरे पुरसिस में पहनाई,
तूं न आई...
होने को ढ़ाई साल आए, मगर तूं न आई...
- Rishabh Bhatt