आवारा

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तुम्हारी शामें किसी और के नाम लिखी जा चुकी हैं, जानता हूं...

फिर भी मता-ए-ज़ां, अपने हर अमरोज का फर्दा तुझे ही मानता हूं,

 

किताबों ने बहुत कुछ कहा है करने को, लेकिन हद कुछ कर न सकी,

बाकी रह गई एक शाम तुम्हारे नाम की, जो तुझे बाजुओं में भर न सकी,

 

हबस परस्त निग़ाहों से आती हुई तेरी क़दमें, एहसासों में मुझे झकझोर जाती है,

हवाओं में खड़ी ख़्वाबों की इमारत दरीचा खोलने को तुझे ही बुलाती है,

 

गेहुएं रंग में तितली के पंखों को छोड़, रब का एहसानों-करम है तुझ पर,

झरने सी फूटती बूंदों सा झिलमिलाती अदाओं में कुदरत का असर है तुझ पर,

 

मेरी नूर-ए-जहां, तेरी खामोशियों से धड़कनों की आहट भी गिराबार हुई जाती है,

नक्काशे सी तराशतीं होंठों को मोहब्बत की स्याहियां, तुझ बिन बेकार हुई जाती हैं,

 

लहलहाती खेतों की फसलों का हर सबेरा तेरे साथ जा चुका है,

मगर तसल्ली तो है कि मेरी फलकों का जजीरा तेरी आंखों में झुका है,

 

किन्हीं ख़्वाब-ए-मरमरी की तरह अब इन गलियों में मारा मारा फिरुं,

मगरूर सी इन शामों को लेकर मैं तेरे इश्क में आवारा फिरुं....

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- Rishabh Bhatt

 

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