बगावत-ए-इश्क आज भी

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एक प्रश्न आज भी अपने पन्नों में हजारों 

कहानियों को लिखते जा रही है,

और अब तो हम भी उसका एक हिस्सा बन चुके हैं, 

चुनौतियाँ हमारी भी वहीं हैं और आवाज भी 

उर्वशी की... 

उस रोज पूरा देवलोक उर्वशी पर अभियोग बन चुका था,

इसलिए कि उसने प्रेम किया...

युगों-युगों से नाचने वाली एक नर्तकी जब 

अपने मन का नाँच जान लेती है, 

तो उसकी मर्यादा की स्याही मेहंदी की एक 

दागबनकर रह जाती है

और अनारकली की घुंघरु 

जब एक सहजादे के दिल में अपनी

शाख-ए-तमन्नाओं में पनपने लगती हैं,

तो जिल-ए-इलाही की शान-ओ-सौकत 

शर्मसार हो जाती है,

आज भी...कुछ नया नहीं है...

बस हम नये हैं और एक नई शुरुआत है, 

पर.. उसका भी कोई अंत कहाँ हुआ ?

जो आरजू कैदखाने की अंधेरी दीवारों में एक 

चाँद जैसी चमक रही थी 

और जिसका ताप बादशाही हतकड़ियाँ एक 

पल भी सहन नहीं कर सकीं,

शायद... 

आने वाला कल हमारे लिए भी ऐसा हो,

लेकिन उवर्शी के वो प्रश्न-

''जिस डमरू को सुनकर ग़ौरी ने खुद को मोड़ लिया, 

मुरली की तानों में राधा ने अपना तन-मन छोड़ दिया, 

वही लाग मेरे मन में लगी 

तो राजसिंहासन की मर्यादा को मैंने कैसे तोड़ दिया ?" 

हमेशा अमर रहेगा...

और अब हमें इसके उत्तर की तालाश करनी होगी,

एक अध्याय बनकर...

- Rishabh Bhatt

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