राणा की तलवारें

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धर्मवादी रुढ़ियां जब अपने चरम उत्ताम पर

पूरे भारत को बांधने में ससक्त थीं,

हवाओं का रुख भी स्वयं 

तलवारों की नोकों से मजबूर

और जन्य भावना अव्यक्त थीं,

एक स्वतंत्रता ईश्वर को पाने की,

तो दूसरी ईश्वर बन जाने की,

एक स्वाभिमान पत्थर पर स्याही की,

तो दूसरी जिद, जिल-ए-इलाही की,

एक स्त्री के मर्यादा अधिकार की,

तो दूसरी आगरा के मीना बाजार की,

कहानी....जो अपने पन्नों पर रण के शिवाय

कुछ नहीं देख रही थी,

राज्य विस्तार और स्वराज्य अधिकार की लड़ाई में, 

स्वाभिमान‌ के शिवाय कुछ नहीं देख रही थी,

एक आताताई की जिद लाखों 

जुबानों पर भय बनकर आन पड़ी थी,

लेकिन फिर भी!

राणा की तलवारें निर्भय सीना तान खड़ी थीं।

- Rishabh Bhatt

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1 Comments
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  1. Great poem... heart'touching ❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️

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