जीवन के अंतिम पन्ने पर है,
प्रस्ताव साथ में...
लिखने को तो शेष उमर है,
एक पत्र में क्षमा लिखूं,
सरकार दयालु पन्ने भर देगी,
कारा की ये रात अंधेरी,
तारों से रौशन कर देगी,
पर.... कहां अंधेरा ?
संग मेरे ज्वाला सी चिंगारी है,
ये सांस कहां मरती है ?
ये तो युग अवतारी है,
फिर भी...
एक पत्र लिख ही देता हूं,
शायद आज समय,
कुछ कह जाने की है,
जीवन के अंतिम पन्ने पर,
जीवन को दोहराने की है,
बस....एक विनय अधिकारी से है,
न सांस दया की प्यासी है,
मैं देश प्रेम में न्योछावर हूं,
पर मुझ पर दोषी फांसी है,
है चाह मेरी.. बन्दूकों की गोली,
मेरा शीना पार करे,
मैं बलिदानी रण को अर्पित,
ये धरती मेरा आधार बने।
“सरकार दयालु पन्ने भर देगी, कारा की ये रात अंधेरी” — यह व्यंग्य है अंग्रेज़ सरकार पर, जो क्षमा का छलावा देती है जबकि सच्चाई केवल कारावास और मृत्यु है।
“पर…. कहां अंधेरा ? संग मेरे ज्वाला सी चिंगारी है” — अंधकार में भी भगत सिंह की आत्मा ज्वाला-सी प्रखर है; उनकी विचारधारा अंधेरे को मिटा देती है।
“ये सांस कहां मरती है ? ये तो युग अवतारी है” — उनकी साँसें मरने वाली नहीं, बल्कि युगों-युगों तक प्रेरणा देने वाली अवतारी शक्ति हैं।
“न सांस दया की प्यासी है, मैं देश प्रेम में न्योछावर हूं” — वे क्षमा या दया की भीख नहीं मांगते, उनकी सांसें केवल देशप्रेम को समर्पित हैं।
“है चाह मेरी.. बन्दूकों की गोली, मेरा शीना पार करे” — यह उनकी अंतिम इच्छा है कि वे रणभूमि में गोली खाते हुए बलिदान दें।
“मैं बलिदानी रण को अर्पित, ये धरती मेरा आधार बने” — अंततः वे स्वयं को राष्ट्र की धरती और बलिदान की परंपरा को अर्पित करते हैं।
यह कविता उसी ऐतिहासिक संदर्भ में रची गई है — मानो यह भगत सिंह का अंतिम पत्र हो। इसमें उनकी पीड़ा, व्यंग्य, पराक्रम और अंतिम इच्छा सभी अभिव्यक्त हैं। उन्होंने मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि अमरत्व का माध्यम माना।

