मैं गाता तुम्हें—गणेश वंदना
आस्था का अद्वितीय आलाप • शास्त्रीय और शाश्वत प्रस्तुति
प्रसाद अनुराग का हूँ चढ़ता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें,
भौरों सा करने भ्रमण उर जाता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें।
मलिन मन मधुरता में मिलाई मेरी,
मयंक मनोहर छवि नैनों ने पाई तेरी,
समागम संसार का उदरधर तुम्हारे,
पकड़ लेते बनवारी कोई जब भी हारे,
अश्रु के क्षारों से हूँ तिलक लगता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें,
जो भी हृदय में मेरे, सब बताता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें।
अजब सी थिथर सी उठी, तन वितर,
ज्वाला से पिघला, लिया हिम ने जकड़,
मैं आया, आया तेरे द्वार सिद्धि विनायक,
रखी लाज मेरी हे बने तुम सहायक,
भजूं विघ्नहर्ता, हूँ शीश नवाता तुम्हें…
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें,
अनकहे भाव से हूँ सब जताता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें।
अक्षर प्रिय रोम–रोम में तूने ऐसी लिखी,
मैंने दर्पण में देखा छवि तुम्हारी दिखी,
इस जगत में क्या है भला इतना सजीला?
कर सके जो तुम्हें छोड़, नेत्र को गीला,
अपने इसी प्रेम भाव से हूँ भीगता तुम्हें…
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें,
हे गौरी–गणेश, श्री मुकुट, विधाता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें।
नश्वर इस तन का है अस्तित्व कितना?
मेरे तुच्छ प्राण की कीमत, कीट ही जितना,
फिर भी विवशता से सारी निकाला मुझे,
मैं जब गिरा, देवा! तूने सम्हाला मुझे,
निःसंशय मगन मन पथ को जाता तुम्हें…
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें,
मेवा, मिश्री नहीं, स्नेह हूँ खिलता तुम्हें,
मैं गाता तुम्हें... प्राण दाता तुम्हें।
हे विधाता तुम्हें... हे विधाता तुम्हें।
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