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"यह है उपाय" कह उठे राम ज्यो मंद्रित घन-
कहती थी माता मुझे सदा राजीवनयन,
दो नील कमल है शेष अभी, यह पूरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन । "
- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
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संघर्ष की शामों में सफलता का सबेरा कुछ ऐसा ही है ......
जैसे कि नदी की धाराएं,
जो बहुत से बाधाओं को पार करती हुईं
अपना अंतिम छोर ढूँढ ही लेती है।
संघर्ष का सम्बन्ध भी.....
मजबूरियों से गहरा और दो पहलू में होता है
एक जहां.... मजबूरियां आपके कदमों को रोक लेती हैं
और दूसरा जहाँ, मजबूरियाँ ही आपकी तीव्रता बन जाती हैं .....
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श्री राम और रावण के मध्य युद्ध का वो अंतिम पड़ाव
जहाँ दोनों ओर की सभी शक्तियां जैसे समान हो चुकी थीं...
और कुछ भी कहना सम्भव नहीं था
कि किसकी विजय होगी या किसकी पराजय ......
जामवंत जी ने रावण के पक्ष में देवी आदिशक्ति के होने की इच्छा जताई
और श्री राम से उनको प्रशन्न करने के लिए
एक शक्तिपूजा के आयोजन की सलाह दियें
जामवंत जी की सलाह को स्वीकार कर राम ने
माता आदिशक्ति को प्रसन्न करने हेतु शक्तिपूजा का आयोजन किया.....
उन्होंने मां आदिशक्ति को एक सौ आठ
नील कमल भेंट करने का प्रण भी लिया,
इस प्रण को जान मां आदिशक्ति ने
श्री राम की परिक्षा लेनी चाही......
और फिर.... शक्तिपूजा प्रारम्भ हुआ,
श्री राम सम्पूर्ण समर्पण के साथ
मंत्रोच्चारण करते हुए... नील कमल को
एक-एक कर मां आदिशक्ति को भेंट करने लगे......
जब पूजा समाप्ति की ओर थी,
माँ ने अंतिम नील कमल को छिपा लिया.
श्री राम अपने हाथ आगे बढ़ाएं
और उन्होंने देखा कि अंतिम नील कमल गायब हैं,
यह मध्य रात्रि का समय और
आसन छोड़ वह उठ भी नहीं सकते थें.....
एक क्षण के लिए वह विस्मित से हो जाते हैं
इस पर 'निराला' लिखते हैं -
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"धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध,
जानकी हाथ उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय । "
- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
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अंततः उन्हें माँ कौशल्या की बात याद आती है।
जो उन्हें राजीव नयन कह कर बुलाती थीं ।
राम अपनी माँ को प्रणाम करते हैं
और खंजर को अपनी आँखों की तरफ बढ़ाते हैं
तभी माँ आदिशक्ति प्रगट हो जाती हैं......
उन्होंने राम की इस भक्ति को देखकर उन्हें युद्ध विजय का वरदान दिया।
शायद..... ये राम कथा ही है, जो जीवन को
जीवन के अध्यायों में खोल सकती है,
उन्हें संघर्ष की सफलता और संर्दभ की शुश्रृंखला में ....
समर्पण का पाठ पढ़ा सकती है।
जीवन में मुश्किलें मजबूरियों का स्वरूप लेकर
कब हम पर हावी हो जाती हैं....
इसकी भनक भी हमारे कानों तक नहीं पहुँचती
मगर मर्यादा पुरुषोत्तम का अस्तित्व ही है,
जो इन्हें समय से पूर्व स्वर्णिम स्वरूप प्रदान कर सकता है ।
- ऋषभ भट्ट (क़िताब : ये आसमां तेरे कदमों में है)