मैंने बहुत बार सोचा है...
अगर कभी मेरा कोई अपना हो,
कोई जिसे मैं पूरे मन से चाहूँ,
पूरे विश्वास से निहारूँ,
पूरे आत्मसम्मान से स्वीकार कर सकूँ,
तो मेरा मन बस यही कहता है —
“मुझे राधा-कृष्ण जैसा प्रेम नहीं चाहिए...”
हाँ, कृष्ण मोहक हैं, राधा अनुपम हैं,
उनका प्रेम अमर है —
पर उस प्रेम में
कुछ छूट जाने का,
कुछ अधूरा रह जाने का
एक मौन दर्द है।
और राम-सिया का रिश्ता,
वो भी महान है, आदर्श है,
किन्तु मेरा अंतर्मन
कभी-कभी उन लकीरों में
स्वतंत्रता की जगह खोजता है।
मुझे वो प्रेम चाहिए,
जो ऊँच-नीच, वक़्त और वचन की सीमाओं से ऊपर हो।
जहाँ कोई त्याग न हो,
ना कोई प्रतीक्षा —
बल्कि साथ हो, मौन हो, और
एक दूसरे में पूर्णता हो।
मुझे शिव जैसा प्रेम चाहिए।
जहाँ आप मेरे ईश्वर न हों,
और मैं आपकी पूजा न करूँ,
बल्कि हम दोनों
एक-दूसरे की आँखों में
खुद को देखें।
मुझे आपकी उपासना नहीं चाहिए,
मुझे आपका साथ चाहिए।
मुझे वो साथ चाहिए
जो कैलाश की बर्फ़ीली चोटियों जितना शांत हो,
पर भीतर से ज्वालामुखी जैसा जीवंत।
जहाँ प्रेम
मंत्रों में नहीं,
नज़रों में हो,
जहाँ समर्पण
मौन में हो,
और जहाँ बंधन
इतना कोमल हो
कि वो स्वतंत्रता का दूसरा नाम लगे।
मुझे वो रिश्ता चाहिए,
जहाँ जब आप ध्यान में बैठें,
तो मेरी स्मृति
आपके ललाट पर तिलक बन जाए,
और जब मैं मौन साधना करूँ,
तो आपकी उपस्थिति
मेरे हृदय में धड़कन बनकर बजे।
मुझे वो संबंध चाहिए,
जिसमें आपकी तांडव
मेरे भीतर की नृत्य को जन्म दे,
और मेरा संयम
आपके भीतर की ज्वाला को शीतल कर दे।
मैं राधा नहीं बनना चाहती
जिसके प्रेम की परिभाषा
किसी और के विवाह से बंध जाए।
न ही मैं वह होना चाहती
जो प्रेम में अपनी पहचान खो दे।
मैं पार्वती होना चाहती हूँ।
जिसने प्रेम को केवल चाहा नहीं,
साधा है, जिया है,
अपने तप से उसे खींच लायी है,
और फिर कभी छोड़ा नहीं।
मैं वह बनना चाहती हूँ
जिसका प्रेम
आपको पिघलाए नहीं,
आपको स्थिर करे,
जो आपकी जटाओं में बहती गंगा न बने,
बल्कि वह बन जाए
जिसके स्पर्श से
आपकी समाधि भी मुस्कुरा उठे।
मैं आपसे कुछ भी विशेष नहीं माँगती,
बस इतना चाहती हूँ
कि जब मेरा नाम लिया जाए,
तो आपके नाम से पहले भी
न कोई विराम हो,
न बाद में कोई प्रश्न।
मुझे शिव जैसा प्रेम चाहिए,
जहाँ साथ में मौन हो,
साथ में अस्तित्व हो,
जहाँ मैं आपके त्रिनेत्र को समझ सकूँ
बिना किसी डर के,
और आप मेरी साधना को
बिना शंका के स्वीकार करें।
जहाँ कोई वादा न हो,
पर विश्वास हर सांस में हो,
जहाँ कोई परिभाषा न हो,
फिर भी हर भाव में
प्रेम अपने चरम पर हो।
मैं कोई देवी नहीं बनना चाहती,
ना आप कोई देवता बनिए,
बस दोनों एक-दूसरे के
“स्वरूप” बन जाएं —
साधक और साधना।
जहाँ प्रेम
रंगों का त्यौहार न हो,
बल्कि
मौन की शिवरात्रि हो।
मुझे उस प्रेम की प्यास है,
जो मौन की भाषा में बोला जाए,
जहाँ आपकी आँखों की थिरकन से
मेरे हृदय के भीतर फूल खिल जाएं।
जहाँ कोई वादा न किया जाए,
और फिर भी सब कुछ अटूट लगे।
जहाँ आप हर बार
मेरे समक्ष संकल्प बनकर खड़े हों,
ना किसी वचन की ज़रूरत हो,
ना किसी शर्त की।
मैं उस शिव को चाहती हूँ,
जो अकेलेपन से घबराता नहीं,
और फिर भी
किसी पार्वती के साथ
पूर्ण हो जाता है।
आपके भीतर का वो शून्य,
वो निर्विकार मौन,
मेरे भीतर के प्रेम को
कहीं गहरा कर देता है।
किताब : नींद मेरी ख़्वाब तेरे
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion