उस रात की चुप्पी में कुछ था —
कुछ ऐसा जो सिर्फ खामोशी कह सकती थी,
शब्द जहाँ कम पड़ जाएँ,
वहाँ एक नज़र की नमी पूरी किताब बन जाती है।
मैंने उसे देखा,
नज़रों से, दिल से, और उससे भी आगे —
उससे जो सवाल थे मेरे पास,
वो कोई तफ्तीश नहीं थे,
बल्कि एक तड़प थे, जानने की, समझने की,
उसे महसूस करने की —
जैसे कोई सूफी दरवेश अपनी इबादत में डूबा हो।
मैंने पूछा —
“तुम्हें सबसे ज़्यादा तकलीफ़ कब हुई थी?”
वो थोड़ी देर चुप रही,
फिर धीरे से बोली —
“जब मैंने खुद को साबित करने की कोशिश की,
हर बार किसी की नज़रों में सही ठहरने की,
और हर बार हार गई…
पर किसी से कुछ कहा नहीं।”
उसकी आवाज़ काँपती नहीं थी,
मगर उसकी आँखें कुछ कह रही थीं,
कुछ ऐसा जो लफ्ज़ों से परे था।
मैंने पूछा —
“क्या तुम्हें किसी ने वाक़ई चाहा?”
उसने गहरी साँस ली,
और बोली —
“हाँ… लेकिन सिर्फ तब तक
जब तक मैं आसान थी,
जब तक मैं हँसी,
जैसे ही मैंने सच्चाई से बात की,
वो चले गए…”
वो हँसी,
लेकिन उस हँसी में एक बुझी हुई लौ थी,
जैसे किसी दिये ने खुद को हवा से बचाते हुए
जलना सीखा हो।
मैंने कहा —
“तुम इतनी बातें इतनी आसानी से कैसे कह लेती हो?”
उसने कहा —
“क्योंकि मैं अब डरती नहीं…
जब किसी ने तुम्हारी रूह को नोच लिया हो,
तो जिस्म का डर क्या चीज़ है?”
उसने मेरी ओर देखा,
ऐसे जैसे मेरी आँखों में कुछ तलाश रही हो —
और फिर पूछा —
“तुम क्यों पूछते हो इतने सवाल?”
मैंने कहा —
“क्योंकि मैं तुम्हें जानना चाहता हूँ…
उस तरह, जैसे कोई किताब बिना पढ़े समझ न आए,
तुम्हारी हर परत, हर दास्तान,
हर आँसू का रंग समझना चाहता हूँ।”
मैंने पूछा —
“तुम्हारी सबसे पसंदीदा चीज़ क्या है?”
उसने मुस्कुरा कर कहा —
“वो लम्हे, जब कोई मुझसे कुछ माँगे नहीं,
बस मेरी खामोशी में भी मेरा साथ दे।”
मैंने कहा —
“अगर मैं तुम्हारी खामोशी बन जाऊँ तो?”
उसने जवाब दिया —
“तो मैं हमेशा बोलती रहूँगी… तुम्हारे भीतर।”
उस रात उसने मुझे दुनिया का वो चेहरा दिखाया
जो मैं कभी देख नहीं पाया था —
नारी की आत्मा का गहरापन,
उसकी थकावट, उसकी ममता, उसकी बगावत,
सब कुछ शब्दों में उतार दिया उसने,
बिना एक भी आंसू गिराए।
मैंने पूछा —
“क्या तुम्हें कोई समझ पाया है?”
उसने सिर हिलाया —
“हाँ, कभी-कभी, शायद आधा…
मगर तुम,
तुमने मुझे सवालों में देखा,
इसलिए शायद तुम मुझे पूरे देख सको।”
और फिर…
वो सवाल आया —
जिसका कोई जवाब किताबों में नहीं होता।
मैंने पूछा —
“किसी लड़की की सबसे बड़ी तकलीफ क्या है?”
मैं ठहर गया… डरते हुए,
कहीं कुछ गलत न कह दूं।
वो चुप रही कुछ पल…
फिर बोली —
“जब वो किसी लड़के के साथ,
पूरे विश्वास से खुद को समर्पित कर देती है —
और फिर, वो लड़का उसे
कभी समझे ही नहीं।”
किताब : नींद मेरी ख़्वाब तेरे
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion