धुन को मै धारण करता धन की कुछ आश लिए,
घूंट घूंट बूंदों को पी कर परम ताप में सांस जिए,
पग सिर की सोभा यह कनक मणि है वस्त्र यही,
ढोल नगाड़ों की गूंजें सुनना यही उदय है अस्त यही,
पितृ समान आयु थी जिसकी उसकी पगड़ी पैर तले,
मदिरा के आदी कुछ उतपाती बन बैरी वो गैर चलें,
पकड़ कांध को झपटे वे हाथों को भी तान पड़े,
खेल बना या बना खिलौना मुझको न कुछ जान पड़े,
खींच खींच इन हाथों को लट्टू से वे नाच नचाएं,
मनोरंजन का छवि उभरा मस्त मगन हो सब मुस्काएं,
रंग बिरंगी उड़ी तरंगें कौतूहल मन में छाया,
रंग मंच से फेंका सबने भू ने अपने गले लगाया,
पर शायद नया न कुछ इसमें वर्षों से यह हाल मिले,
सहन शक्ति की सीमा में इस दो पहर की रोटी दाल मिले,
स्वीकार मुझे तिनके सा भी मुझको न कोई मान मिले,
दो टूक कलेजे का कर यदि गृह के मुख मुस्कान मिले।
- Rishabh Bhatt
Nii
ReplyDeleteBahut subder
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