बूंद–बूंद को रसिक बना था,
अब बरखा को नित शीश नवाऊं,
कान्हा तो मेरे सागर हैं,
मैं डुबकी ले–ले बहता जाऊं,
मेरा न था, जो शब्द पिरोया मैंने,
श्री राधा में सुधि बस खोया मैंने,
पंक्ति लिखे हर मेरे, उड़ भाव कहीं से आएं,
कान्हा ही चुन–चुन जैसे, राग मुझे दे जाएं,
गुण मुझमें नहि, गुणधाम के गुण मैं गाऊं,
मैं बालक थाम उन्हें पथ को चलता जाऊं,
बूंद–बूंद को.....................बहता जाऊं।
रुद्र रूप में तात तुम्हीं शिव,
शक्ति के संग कान्हा फिर बन जाते,
क्रोध में जिसके डमरू डोले,
वहीं प्रेम में मुरलीधर कहलाते,
शिव–कृष्ण में भेद करें जग सोया,
उर–उर में दोनों का है खोया,
एक धागे के वो द्विगल किनारे,
एक बनाए, एक संहारे,
दो नयन दिए, एक छवि पर पाऊं,
कैसे इस करुणामृत का मोल चुकाऊं?
बूंद–बूंद को.....................बहता जाऊं।
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
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