सिंधपति दाहिर ; स्मृति - 4

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उचित  अनुचित  का  ज्ञान  न,  
अरि वात्सना का दास है,
दरबारियों, देखा लो !
सूचना में शत्रु के अज्ञानता का वास है,

देखता है अंध भी
इंद्री  भावों  के  जगा,
पर खो गया अरि कल्पना में,
सत्य, धीरज डगमगा,


जागता है स्वान भी,
रात्रि आंखों को लगा,
पर सो रहा अरि कामना के
भाव उर में जगमगा,

सत्य है ! नाश ही छाया
जो कर रहा हुंकार है,
बुद्धि का संयम जला
बनता सुगम, धिक्कार है !


साथियों ! रण को उठा लो
भाल तुम, देखना है
शत्रु में साहस कोई
या फिर क्षणिक उत्तेजना है !

जुगनुओं में प्यास है
सुरज निगलने की आज तो,
बता दो ! सिंध की भावी प्रबलता
मुत्मइन आवाज को ।


गूंज फिर छाने लगी
पूरे सभा में दर्जनों,
बोला वहीं से एक फिर
सिंध के सरदारों सुनों,

महराज हैं आसित यहीं
उनसे तनिक आदेश लो,
संगर चलो होकर सजग
यूं ही नहीं आवेश खो,


शत्रु है ग्रसित अगर
रण की उसे क्षण प्यास है,
भर दो महीं तल रक्त से,
वीरों चलों ! उल्लास है,

लिख दो नया इतिहास तुम,
देखो जरा उपहास तुम,
अरि बोलता मिथ्या नई,
कुम्भिल स्वयं, कहता कोई,


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उसको तनिक न ज्ञान है !
या जानकर अनजान है ?
अज्ञानता के द्वार में,
व्यर्थ के हुंकार में,

बोलता होगा समर,
तो बात ये कर दो अमर,
वीरों चलों ! संगर चलो !
रण की प्रभा बनकर जलों,


लिख दो नई वेदी समर की,
इच्छा यही आठों पहर की,
भिक्षा यदि अरि मांगता,
करुणा ह्रदय में जागता,

पर मांगता है शत्रु वो,
सम्भव नहीं है स्वप्न जो,
भूपति करें आदेश अब,
रण की लिखें संदेश तब,
शोभा नई आए निखर,
लिखकर अमर-संगर-प्रखर।


सुनकर सभी को ध्यान से,
उठकर खड़े हो मान से,
बोलें स्वयं राजन, सुनो !
भू की प्रभा प्यारे जनों,

गौरव हमारे धर्म में है,
याचना के सत्कर्म में है,
याचक यदि आया यहां,
सुदूर से कुछ लाया यहां,


शंका ह्रदय में पल रही है,
प्रतिशोध बन जो जल रही है,
उसका सरल संदेश दो,
बीते हुए सब द्वेष को,

घटना यही न ! क्षति हुई,
धन भी लुटें, दुर्गति हुई,
व्यापारों से व्यापारी डोलें,
खुली आंख से बरसे शोले,


गिरा समंदर में प्याला,
सागर में फैली मधुशाला,
लुटीं मणि की मृदु मालाएं,
आजाद हुईं साकी बालाएं,



भोग-विलासी प्यास गएं,
चोरों के संग संग दास गएं,
कारण इन सबको अरि माने है,
वो सिंधीं लुटेरे जाने है,

मिथ्या पर मिथ्या फूटें,
अरमानों पर पानी छूटें,
तब आया करने को रण गर्जन,
शब्दों में ज्वाला के तर्जन,


मांगे तो मैं भिक्षा दूं,
पर न यह माटी की इच्छा दूं,
सकल सभा में ललकार धरूं,
अरि कायरता पर धिक्कार करूं,

मिथ्या सी बातों में छिपकर,
लालच की अग्नि में धिक-धिक कर,
मांग रहा इस स्वर्ग चिड़ी को,
पूरब की दीपकली को,


वर्षों से रण में हारा है,
फिर भी रण ही उसको प्यारा है,
हम प्रेम लुटाते चलते हैं,
पौरुष की शाखा में पलते हैं,

हम विश्व विजेता हैं उर के,
अनुराग अमर के, प्रेम प्रखर के,
हम दानी हैं, ज्ञानी हैं,
हम गंगा की निर्मलता के पानी हैं,


निर्मल मन की बात सुनो,
हे अरब देश के भ्रात जनों,
सागर में चोरी तुम जानों,
अज्ञानी मन को भी पहचानों,

चोर, लुटेरे, अरबी सेना,
सिंध से न कोई लेना-देना,
बात यहीं यह ख़त्म करो,
धावक को भी विदा करो,


फिर जय बोले सब काली की,
ऊषा में फैले उजियाली की,
जय बोलें काल-कपाली की,
जय-जय हो खप्पर वाली की।


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गई बात यह अरब देश को,
उठा ख़लीफा लिए क्लेश को,
बोला, मेरी बातों को धिक्कार करे,
वो सिंधपति प्रतिकार करे,

खाता हूं कसम ख़ुदा की,
तोड़ूंगा यह घमण्ड मृदा की,


नश-नश की लहू को पानी कर दूंगा,
जन-जन की लाश जवानी कर दूंगा,
माटी के मतवाले माटी में जाएंगे,
तलवारों से यह प्यास बुझाएंगे,


मीर उठो ! मेरे राजा,
खोलो जन्नत जाने का दरवाजा,
मौला को काफिर टोली दे दो,
पूरब को खूनी होली दे दो,

रण जाने की कर लो तैयारी,
है इम्तिहान की तेरी बारी,
विजय पताका लहरा दो तुम,
जज्बा जेहाद का फहरा दो तुम,


जाओ क्षण-भर विश्राम करो,
फिर संगर को प्रस्थान धरो,
खुदा सलामती तुमको बक्छें,
तुम्हीं मसीहा सबसे अच्छे।


- Rishabh Bhatt


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