आंखों में आंधी तूफान लिए
अरबों की सेना सिंध चली,
अश्व-बलिस्ते रण मर्दन करतीं
संग-संग उनके हिंद चलीं,
बाणों में खूनी प्यास लिए
तरकस से नरभक्षी राह उठी,
संतानों की लाशों पे रोती,
धरती, वर्षों-वरस कराह उठी,
चारों ओर गूंज एक ही
एक ही नारा अल्लाह उठें,
हूं हूं कर तलवारों की
प्यासी पथराई बांह उठे,
कण-कण में चित्कार उठे,
हय मस्त मतंग हुंकार उठे,
गर्म हवा में लू लपटों की
चम चम चमके, तलवार उठे,
ऐसी भारी सेना के संग
अरि सीमा पर डाला बेड़ा,
लिए बगावत के सुर को
बौद्धों ने भी रण को छेड़ा,
जा पहुंचे, मिल गएं
एक पल में भूल धरा के कर्ज सभी,
गुट-गुट में पहुंचे इधर-उधर से
बन करके मर्ज सभी,
अब मर्दन करने को मुर्दों पर
काल भयंकर तैयार हुई,
चपला सी तड़ तड़ करती,
छवि हथियारों की खूंखार हूई।
करने को संबोधन, कासिम!
सैन्य सिविर में आगे आया,
भय से उसके, पूरे दल में,
मानों मातम सा छाया,
सत्रह वर्ष का, किन्तु
उसमें राक्षसी प्रवृत्ति थी भारी,
बोला, सागर में मछली सम
लाशों के बहने की बारी,
अल्लाह के बंदो, सुन लो!
सिंध द्वार है आगे बढ़ने का,
इस्लाम सहित स्वर्णिम युग में
गिरि-गढ़ चढ़ने का,
यह विजय नहीं सीमा की,
मजहब के सूर्य चमकने की,
काफ़िर की बलि चढ़ाकर,
जन्नत तक पहुंचने की,
यह विजय नहीं कामना की,
हृदय काम के बुझ जाने की,
सुन्दरियों, बालाओं को पी-पी कर,
उर की प्यास बुझाने की,
यह विजय नहीं धन दौलत की,
स्वयं रत्न बन जाने की,
स्वप्नों के शीशमहल को
कटे शीष पर बनवाने की,
यह विजय नहीं चैतन्य तेज की,
कुटिल नीति अपनाने की,
जन-जन की लाशों पर चढ़कर,
विजय-गीत-गुण गाने की,
यह विजय नहीं ऐश्वर्य-राज की,
अरबों के अपमान चुकने की,
इस्लाम विजय दिखलाने की,
अल्लाह को शीष नवाने की,
यह विजय रोम-रोम में घुल जाए,
खर-खंजर शोणितमय धुल जाए,
रक्त बीज से विजय हमारी,
ध्रुव-ध्रुव तक मिल जाए,
चलो बढ़ो आगे! चलो बढ़ो आगे!
साथियों ! बढ़ो आगे,
बिकराल रूप ढ़ाले, गिरि-गिरि पर चढ़ो!
तुम बढ़ो आगे ।
सत्य ही, मृदु शादों पर
चरण दंभ के पड़ जाते हैं,
सरशीरुह के लोचन में
भौरों के भिन-भिन मचलाते हैं,
सौन्दर्य-गर्वित-सरिता में
पावक मद की जलती है,
आप आप ही भाप स्वयं बन
जल को भी छलती है,
जग मुरझाया, जैसे वृक्षों के
पतझड़ में पत्ते छूटें,
कामातुर उर में प्यास लिए,
दुर्जन अरि के सैनिक टूटें,
निःशस्त्र जनों पे, नाकारे-
अरबों ने धूर्त चढ़ाई की,
कासिम की निगरानी में
इक धर्म जेहादी लड़ाई की,
पर, पौरुष की भूमि पर
शेरों के छाती ही पलते हैं,
सुन बैरी के पैरों की आहट,
बच्चों के भी खून उबलते हैं,
वक्ष जवानों के तन जाते हैं,
ले-ले-हर-हर की बोली,
कर-कर में खंजर भर
चल पड़ती है महिलाओं की टोली,
पीने को खप्पर, काली की
रुप भयंकर दिख जाती है,
रक्त दुधारू पी-पी कर
तलवारें, ताण्डव उग्र दिखाती हैं।
हा ! ऊषा की मृदु पलकों पर,
छल-छल छलकी, शोणितमय पानी,
हह-हहा उठी, पल भर में
देवल की शान्त जवानी,
प्रथम प्रहार, देवल की उजियारी,
देवालय की चोटी पर,
द्वितीय में पंडित, कहीं पुरोहित,
कहीं पुजारी की रोटी पर,
तृतीय में, जन-जन की लाश बही,
मारुत के संग-संग सर-सर,
गिरें, गगन से बूंद गिरी हो,
झरनों के सम झर-झर,
दो टूक कलेजे के, वे-
पल भर में, टुकड़े चार हो गएं,
चैतन्य स्वास से छूरी-खंजर
एक-एक कर पार हो गए,
चौथे में, लोहू से लिथरातीं,
कटीं-छटीं बस लाशें,
लुत्थम-लुत्था जूझ रहीं हों,
दीमक सम पीने को लाशें,
हा विधना! हा, ऐसी बलि,
वेदी ने शायद देखी होगी,
चर-चर चर-चर नशें चबातीं,
लोहू से कृपाणें भीगीं होंगी,
कुशा लाल, महि-शून्य अकाल,
हा विधना! हा, ऐसी मायाजाल,
तन-तन के फाड़ उदर को,
निकलें अरि के भीषण भाल,
महज़ चंद पलों में, देवल
लाशों की श्मसान हो गई,
लड़ सकीं लड़ी तब तक सांसें,
जब तक न निष्प्राण हो गईं,
जैसे पिघल गई, हिम गिरि से,
इधर लाश हा उधर लाश,
बस, प्राण किशोरी रही शेष
बनने को अरबी दास,
दो चार पहर बीतें, फिर हो गया,
उस रंगमंच का सम्पूर्ण अंत,
मानवता की काया में लिख गई,
देवल युग-युग तक व्यथा भ्रंत ।
- Rishabh Bhatt