महारानी पद्मिनी की जौहर गाथा 🔥 : Season–1
जौहर की ज्वाला : भाग-3 🔥
जब चित्तौड़ की धरती पर सूरज भी भयभीत था,और संगर की तिथि आकर वीरों और स्त्रियों की धड़कनों में समा गई,तब प्रकृति भी अपने रंगों से लौट गई — कोई कलरव नहीं, कोई कुसुम मुस्कान नहीं, केवल रण की धधकती आग और रक्त की सरिता।
यह अंश उस ऐतिहासिक क्षण की गाथा है, जब रावल गढ़ के वीर और रानी पद्मिनी ने संपूर्ण प्राणों का बलिदान देकर सम्मान और मर्यादा की रक्षा की। हर पंक्ति में रणभूमि की गूंज, वीरता की चमक और जौहर की अग्नि जीवंत होती है।
यह गाथा केवल युद्ध की नहीं — बल्कि बलिदान, मातृशक्ति और वीरता की अमर स्मृति है, जो पाठक को रोकती है, सोचने पर मजबूर करती है और कहती है: "जय बोल बलिदानी चित्तौड़ की!" ⚔️🔥
पेश है इस श्रृंखला का अंतिम अंश...
विहगो में कलरव न था,न कुसुम कुमारों ने नैना खोली,
अर्क तिमिर का पर्दा डाले,नभ में न फैली थी रोली,
संगर की तिथि आ पहुंची थी,ऊषा के किरणों की देरी,
ससि पर नजर गड़ाए बैठे सब,परिचारक करते रण फेरी,
क्षण शेष बचे आरोहण के,संगर भी शोणित प्यासी,
दिनकर के किरणों में देरी,फिर बहे लहू सरिता सी,
सरसी एक किरण आ पहुंची,घन अपने आलय से डोला,
डम-डम डम-डम डंका बाजे,रश्मि ने पथ रण का खोला,
खुला सिंह द्वार किले का,डगर डगर डगमग डोले,
रावल रणधीरों की सेना,ले बरछी बरछी भाले भाले बोलें,
बोले नंगी तलवारों से,घोड़ों से घुड़सवारों से,
बोले दुर्जय ढालों से,खंजर से बरछी भालों से,
आरम्भ हुआ रण कम्पित कण-कण,आरव तोपों का क्षण,
क्षण गज हुंकार मिले,क्षण खंजर फालों बरछी भालों का रण,
रण हय के विकल वितुण्डों का,रण चादर से फैले मुण्डों का,
रण हाथ लिए करवालों का,रण अरि के असुरी झुण्डों का,
रण भू तन से पाट रही,रण रक्त सरित की धार बही,
लहरें भी लहूलुहान उठें,अरि शोणित में तलवार बही,
पर एक समय आया ऐसा,आंखों से ओझल दिनकर था,
संतापो ने उपवन को घेरा,आकुल हो फिरता हिमकर था,
भूधर भी सागर में डूबा,सागर जैसे घट में था,
खग कुल में कोलाहल छाया,कलरव अपने हट में था,
हट अरि क्रूर कटारी की लगी रतन को,घन को भी था रुला दिया,
देख सकी न अवनी सुत को,आंचल में अपने सुला लिया,
आंसू से बरस उठा जग,जय कण-कण में फैले रोली की,
जय बोल उठी उपवन की बेला,जय बलिदानी होली की,
जय जननी चित्तौड़ धरा की,जय भूमि रणधीरों की,
अरि शोणित में तलवार धूलें,जय जय हो रावल वीरों की,
देख अलाउद्दीन दृश्य ये,जय मद में चूर हुआ,
मिथ्या सागर भी पी लूं अब,ससि शीतलता से दूर हुआ,
गहन अंध उर में भरकर,राहू ससि की ओर चला,
कदम-कदम ले-ले कर चलता,सतियों पर घनघोर बला,
उधर उगा विस्मय का सूरज,संतापों के घेरे में,
संका में ससि डूब रहा,छवि ऐसी रावल डेरे में,
संग रानी चली नारियां,मिला-मिला कर कदम कहां,
अधरों पर आमोद बसा,नैनों से सावन बरस रहा,
नैनों में ज्वला धधक रही थी,स्वसों में प्रखर चिंगारी थी,
जौहर की लपटें अम्बर छूतीं,दिनकर पर भी भारी था,
प्यारी स्वासों की प्रिय को,कर-कर नमन थिरानी थी,
पग ज्वाला में कुसुम बिछे हों,वो अनमोल रवानी थी,
करतल में लाली-लाली थी,नीरवता में कटु प्याली थी,
उस वीर प्रसवनी मां की,आंचल जैसे खाली थी,
पानी-पानी थी प्रतिपल,मुरझाई सी ध्वज उच्छल,
आहत थी उपल किले की,बरस रही थी पल-पल अविरल।
जय महारानी पद्मिनी 🙏🏻🪔
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🌿 Written by Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion
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Rishabh Bhatt
भारतवर्ष…
जो युगों से आक्रांताओं की लालसा का लक्ष्य रहा, फिर भी हर आघात के बाद और अधिक उज्ज्वल हुआ।
13वीं शताब्दी की वही विभीषिका थी जब अलाउद्दीन खिलजी की महत्वाकांक्षा चित्तौड़ की मर्यादा पर पंजे गाड़ने को उतावली थी। पर इतिहास गवाह है — जहाँ आक्रमणकारी तलवारें बढ़ीं, वहीं महारानी पद्मिनी जैसी देवियों ने अग्नि को वरण कर स्त्री–शक्ति की परिभाषा बदल दी।
चित्तौड़, जो उस समय वीरता, प्रेम और त्याग का प्रतीक था — वहीं जली वह जौहर ज्वाला, जिसने यह सिद्ध किया कि भारतीय नारी को जीता नहीं जा सकता, क्योंकि वह देह नहीं, आत्मा से स्वतंत्र होती है। “महारानी पद्मिनी की जौहर गाथा” सिर्फ़ इतिहास नहीं, बल्कि उस अग्निस्नान का काव्य है जहाँ राख नहीं, अमरत्व जन्मा था।
🔥 ये खण्डकाव्य समर्पित है उस जौहर ज्वाला को — जो आज भी भारत की आन, बान और मर्यादा की लौ बनकर जल रही है।
