Book : Dev Vandana
By Rishabh Bhatt
ISBN : 978-93-342-1422-2
Pages : 132
Published Date: 25 February 2025
Paperback : ₹199
Hardcover : ₹250
E-BOOK : ₹91
मैट्रिक्स, आज से करीब पच्चीस साल पहले आई इस नाम की फिल्म का नाम मैंने पहली बार दो साल पहले गीता क्वेस्ट नाम के एक यूट्यूब चैनल पर सुना था। चैनल के एक वीडियो में भगवत गीता के सिद्धांतों और वेदांतों के दर्शन से कैसे ये फिल्म मेल खाती है इसकी झलक मुझे मिली। माया, इस शब्द को मैंने पहले भी बहुत बार सुना था लेकिन पहली बार बहुत आसान भाषा में मुझे इसका अर्थ समझ आया। मैंने ये भी सीखा कि वेदांत के दर्शन भले ही हजारों साल पुराने हैं लेकिन उनको जब आज में रखा जाता है वे तब भी उतने ही खरे उतरते हैं जितने की सालों पहले। फिर चाहे ‘स्पाइडर मैने; नो वे होम’ हो या फिर ‘डब्लू: टू वर्ल्ड्स’ नाम का कोरियन ड्रामा, या इसके जैसी एक और सीरीज ‘स्विच ऑन’, इन सब में मैंने पाया कि ये सारी कहानियां हमारी वेदांत दर्शन पर ही आधारित हैं, हमारी ग्रंथों के मूल से ही कहीं न कहीं इनकी उत्पति हुई है। खैर फिल्मों के ऐसे उदाहरण देते हुए पन्ने कम पड़ जाएंगे लेकिन सब में एक ही चीज नजर आएगी कि उनका उद्भव हमारी प्राचीन ग्रंथो से प्रेरित है। शायद इसे पढ़कर हर भारतीय को खुद पर और अपनी संस्कृति पर गर्व हो और होना भी चाहिए।
आपके मन में एक सवाल आ सकता है कि इस बात का इस किताब से क्या सम्बन्ध है? इसका जवाब देने से पहले एक और बात बताना चाहूंगा कि ईश्वर और उनकी श्रद्धा का मेरे जीवन में प्रभाव कैसे पड़ा? जवाब में मेरे ग्रैंडपैरेंट्स और मेरे पेरेंट्स हैं, जिन्होंने हमारे परिवार को एक मंदिर के जैसा बनाकर रखा। बचपन से ही सुबह–सुबह कानों में घंटी की टंकार और भक्ति गीत की गूंज सुनकर मैं बड़ा हुआ हूं। मुझे इन गीतों में बेहद आनंद आता था और यही मैंने अपना पहला दोस्त बनाया, जो थे मेरे राम जी। आप उन्हें चाहे जिस रूप में भी मानते हों पर हमेशा से वो मेरे लिए किसी सच्चे दोस्त की तरह रहे हैं। कभी–कभी मुझे भी अविश्वसनीय सा लगता है जब मैं उनलझनों में ठहर खुद को अपने इस दोस्त को समर्पित कर देता हूं। बदले में मुझे सुलझी हुई राह हर बार मिल जाती है। कुछ के लिए ये बातें मिथक लग सकती हैं लेकिन ये उसी तरह सच है गुड़ और मिठास, और गुड़ को देखकर नहीं चखकर ही उसके स्वाद का आनंद लिया जा सकता है।
जब मैंने लेखन शुरू नहीं किया था उससे पहले मैं काफी पूजा किया करता था। फिर अचानक से ज़िंदगी में न जाने कैसे बदलाव आएं कि धीरे धीरे मैंने सब छोड़ दिया। पूजा करना बल्कि भक्ति नहीं। मैं आज भले ही पूजा नहीं करता लेकिन श्री राम की भक्ति और उनपे विश्वास आज भी मेरी सबसे बड़ी ताकत है। इन्हीं ताकत और पिछले कुछ सालों में देखे फिल्मों और सैकड़ों किताबों को पढ़ने के बाद मैंने अपने नजरिए से दुनिया को देखना शुरू किया। हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों से ज्यादा मुझे पौराणिक कथाएं प्रभावित करती हुई दिखीं। और कहते हैं न कि जब भी आप किसी के प्रभाव में आते हैं वो चाहें इंसान हो या भगवान हृदय में सबके लिए प्रेम उमड़ उठता है। मेरे अंदर भी कोई असामान्य तरंगें सालों उमड़ती रहीं और फिर अचानक से वो कलम की नोक का सहारा ले पन्नों पर बहने लगीं। खास बात ये थी कि इन असामान्य तरंगों पर मेरा पूरी तरह काबू था। जब मैं चाहता इनकी धारे प्रेम में बदल देता और जब चाहें इनको पूजा में। पूजा से मेरा आशय यह है कि भगवान का चिंतन करना या उस सर्वव्यापी सृष्टि रचयिता के गुणगान में खुद को समाहित कर लेना। ये किताब ‘देव वंदना’ भी उन्हीं सच्चिदानंद त्रिदेवों, उनके अवतारों और देवी शक्तियों की वंदना मात्र है। जिसमें पौराणिक कथाओं से लेकर प्रार्थना और गीत शामिल हैं।
मैंने काफी हद तक कोशिश किया है कि मैं गूढ़ भाषा से लेकर आज की सामान्य हिंदी भाषा को आप तक पहुंचा सकूं, जो आपको इस किताब में बेशक देखने को मिलेंगी। इस प्रस्तुति का अंत करने से पहले मैं एक बार आप सभी से महाभारत का वो दृश्य जरूर साझा करना चाहूंगा जो हमारे समक्ष उन परम अंतर्धाम वासुदेव श्री कृष्ण की महिमा को खोल देगा। याद करिए जब अर्जुन और दुर्योधन कृष्ण के समक्ष उनसे युद्ध में उनके पक्ष को लेकर मिलने गए थे। दुर्योधन पहले आया और जब उसने देखा कि श्री कृष्ण ध्यान में थे तो वो उनके सिर के पास रखे एक आसन पर जा बैठा। थोड़ी देर बाद जब अर्जुन आया तो उसने भी भगवान कृष्ण को ध्यान में पाया मगर अर्जुन ने आसन न चुनकर भगवान की चरणों में बैठना उचित समझा और बैठ गया। श्री कृष्ण ने अपनी आँखें खोला तो उन्होंने अर्जुन को अपनी चरणों में पाया। ऐसा देखा उन्होंने अर्जुन का अभिवादन करने के लिए अर्जुन को हृदय से लगा लिया। उसके बाद उन्होंने दुर्योधन को भी वहां पाया और उसका भी अभिवादन किया। ये दृश्य हमें बताता है कि भगवान की शरण में रहने वाले पर भगवान अपनी कृपा सबसे पहले करते हैं। यह बात यही तक नहीं थी फिर उन्होंने दोनों के सामने एक विकल्प रखा। उन्होंने कहा कि युद्ध में एक तरफ उनकी ग्यारह अक्षौहिणी नारायणी सेना होगी और दूसरी तरफ वे अकेले, निशस्त्र।
यहां उन्होंने चुनाव का मौका पहले अर्जुन को दिया। इस पर जब दुर्योधन ने पूछा कि उनके पास पहले वह आया था तो श्री कृष्ण ने जवाब दिया, ‘हे दुर्योधन तुम भले ही अर्जुन से पहले आए थे लेकिन तुमने मेरे सिर के बगल आसन ग्रहण किया और अर्जुन ने मेरे चरणों में। ऐसे में जब मैंने अपनी आँखें खोली तो मेरी दृष्टि सबसे पहले अर्जुन पर गई और इसलिए चुनाव का पहला मौका उसे प्राप्त होगा।’ जब उन्होंने अर्जुन से चरणों में बैठने की वजह पूछी तो अर्जुन का जवाब सुन वो और भी खुश हो उठें। अर्जुन ने कहा कि वह एक याचक के रूप में भगवान के समक्ष आया था ऐसे में वो उनके बराबर स्थान कैसे ग्रहण कर सकता था। अर्जुन के स्वभाव का परिचय यहीं नहीं मिलता आगे जब उसने भगवान की ग्यारह अक्षौहिणी नारायणी सेना को छोड़ स्वयं त्रिलोक रचयिता भगवान कृष्ण की शरण को चुना तोह ये थी उसकी बुद्धिमत्ता और महानता। और जो एक बार भगवान की शरण में चला गया उसकी विजय तो निश्चित है। साथ ही उसे सदैव के लिए भगवान का आशीष मिल जाता है।
ऐसी अद्भुत और अलौकिक दर्शन हमें हमारे शास्त्रों से मिलते हैं तो उनका वर्णन करना तो बनता है। फतेह की बात यह है कि सनातन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जहां भक्त अपने भगवान की महिमा अपने अनुरूप कर सकता है। ऐसी स्वतंत्रता का मिलना मेरे लिए उस परमेश्वर की ही कृपा है जिसको मैंने अपनी वंदनाओं में सजाने की कोशिश की है। मेरी कलम उन सभी देव और शक्तियों को अपनी सामर्थ्य से जैसा स्वरूप दे सकती थी उतना मैंने भरसक प्रयास किया है और आगे भी प्रयासरत रहूंगा। अब आगे मैं इस किताब को आपके हवाले करता हूं मुझे उम्मीद है कि आपके प्यार और सुझाव से मैं खुद को और भी बेहतर कर पाऊंगा।