Sindhpati Dahir : 712 AD | New Book

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Sindhpati Dahir : 712 AD


By Rishabh Bhatt


ISBN : 978-93-340-8883-0


Pages : 130


Paperback : ₹199


Hardcover : ₹340


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भारत, उस पश्चिमी दुनिया के लिए एक कठपुतली बन चुका था। कभी इतिहास जलाकर यहां की सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की गई तो कभी यहां की इतिहास को “Mythology” शब्द देकर एक मिथ अर्थात् झूठ बोल दिया गया। दुनिया में ऐसा क्यूं नहीं कि क्रिस्चन माइथोलॉजी हो, इस्लामिक माइथोलॉजी हो या फिर कोई और? सिर्फ हिन्दू माइथोलॉजी जैसे शब्द क्यों बनाए गए? इसका जवाब किसी के पास नहीं। एक एक करके हमारे नायक हमसे छीन लिए गए और चोर उचक्कों को पूरे मध्यकालीन भारत का इतिहास बताया गया। हमें भारत जानना है तो पहले तुगलकों, लोदियों, गौरियों, गजनवियों, खिलजियों और मुगलों को जानना पड़ता है। मुझे इस पर आपत्ति है और आपको भी होनी चाहिए, भारत का इतिहास सिर्फ दिल्ली का इतिहास नहीं है। विजयनगर, राष्ट्रकूट, चोला, सतवाहन, मैसूर, पल्लव, नागा, त्रवानकोर, मराठवाड़ा, सिंध और मेवाड़ का इतिहास भी भारत का इतिहास है। जाहिर है जैसा इन भारतीय राष्ट्रों को छिपाया गया या फिर नीचा दिखाया गया इनका इतिहास भी स्वयं ही गायब हो गया। दुख इस बात का है कि स्वतंत्रता के बाद भी देश मानसिकता का गुलाम है और हम आज तक इससे उबर नहीं पाएं।


हिटलर का प्रोपेगेंडा मिनिस्टर जोसेफ ग्वायबल्स कहता था ’एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है‘। यही भारत के साथ भी हुआ है अताताईयों के वेश–भूषा, चमड़ी और चहेरे बदलते गए लेकिन सबका एक ही मकसद एक था भारत को तोड़ना, लूटना, खंडित करना और बर्बाद करना। पहले इस्लामिक डकैतों ने आके भारत को अनेक जातियों में बांटा, धनमान्तरण करवाया और फिर मैक्स मूलर, फ्रेडरिक ग्रिफिथ, मॉरिस ब्लूमफील्ड जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों ने विदेशी शासन की जड़ों को मजबूत करने के लिए वेदों को ऐसे ट्रांसलेट किया कि किसी भी पढ़ने वाले को ये ग्रंथ कपोल-कल्पना मात्र लगें। इनके भी यही मकसद थे पहला भारत की संस्कृति को नीचा दिखाना और दूसरा यहां के लोगो को जातियों में तोड़ उच्च जाति को क्रूर दिखाकर निम्न जाति के लोगो को धनमान्तरण के लिए प्रेरित करना।

हमारे दूसरे वर्ण के भाई–बहन, उनके मन में ये जहर बोया गया कि बड़ी जाति वालों ने हमेशा छोटी जाति पर जुल्म ढाया है और उन्हें प्रताड़ित किया है। मैं ये नहीं कहता कि ये समस्या बिल्कुल भी नहीं रही है लेकिन हमेशा से नहीं। ऐसा विदेशी आक्रांताओं के आने के बाद से शुरू हुआ। हमारे यहां तो वर्णों की परंपरा रही है। हमारे कर्मों और क्षमताओं के अनुसार एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक समाज में हमारा जो स्थान ही वही हमारा वर्ण है। इसके प्रमाण महर्षि विश्वामित्र जो एक क्षत्रिय हैं, संत कबीर, संत नामदेव, संत रविदास जैसे अनेक महर्षि एवं संत हैं जो निम्न वर्ग से आतें हैं लेकिन इनके प्रति हमारा सम्मान सदैव एक ब्राह्मण के जैसा रहा है। यही नहीं हमारे समाज में स्त्रियों के सम्मान और उनके स्थान को लेकर भी हमें हमेशा नीचा दिखाया गया। लेकिन ऐसा कहने वाले लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि दुनिया में सिर्फ हम ही हैं जो पृथ्वी को मां मानते हैं। हमारी संस्कृति ही है जहां नारी को दुर्गा, काली, गौरी, लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती के रूप में पूजा जाता है।


हमारे वेदों में विस्पला जैसी योद्धा हुईं जिन्होंने गऊओं के लिए युद्ध किया। कैकेई जैसी क्षत्रिय नारी हुईं जिन्होंने राजा दशरथ के साथ असुरों और राक्षसों से युद्ध किया। घोषा, उर्वशी, इंद्राणी, अपाला, शची, सूर्या सावित्री जैसी हमारे वेदों की ऋषिकाएं हुईं जिन्होंने वेदों को लिखा और हमें सिखाया जाता है कि हमारे समाज के स्त्रियों का क्या स्थान था। वहीं हम पश्चिमी ओर देखें तो अरबी में स्त्री के लिए ‘औरत’शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका मतलब स्त्री का एक विशेष अंग है। वो लोग जो एक स्त्री की पहचान इतने असम्मान भाव से देते हैं उन्हें हमारी संस्कृति पर प्रश्न उठने का तो हक भी नहीं है। अगली बार आप भी किसी स्त्री को औरत बोलने से पहले एक बार जरूर सोचिएगा कि आप उसे क्या बोल रहे हैं?


कहने का उद्देश्य यह है कि सारा खेल शब्दों का है। इन्हीं शब्दों के जरिए इतना सब कुछ हमारी आंखों के सामने किया गया और किसी को भनक तक नहीं लगी। हमारी सर्वोच्च सनातन संस्कृति को शब्दों के जरिए इतना हीन बनाया गया कि आज हमारी अस्मिता स्वयं ही शिथिल पड़ चुकी है। हमारे बीच से प्राचीन वैदिक संस्कृत खो ही चुकी है और जो संस्कृत बची है वह भी विलुप्त होने के कगार पर है। इसी तरह आज से कुछ दशकों पहले लिखी रश्मिरथी, उर्वशी, जौहर, कादंबरी जैसी अनेक रचनाओं को समझने का सामर्थ्य भी आज के युवाओं में नहीं रहा। यही रहा तो कुछ सालों में दिनकर, निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रा नंदन पंत और श्याम नारायण पांडे जैसे युगकावियों के अस्तित्व भी गायब हो जाएंगे। मैंने अपने इस खंड काव्य के माध्यम से उसी हिंदी भाषा को बचाने का प्रयास किया है। यही कारण है कि मैंने इस खंड काव्य के लिए गूढ़ भाषा को चुना।

Paperback : 199
Hardcover : ₹340


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