रेशम की डोरी

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पेड़ों की डाली में रेशम की डोरी,
पत्तों को छू-छू के बेला सी फूला करती,
सावन की झूलों में टहनी
बचपन के संग-संग झूला करती,
गांवों की गलियों में आगे-पीछे 
वो नन्हीं सी कदमें डोला करती,
भाई! भाई! आवाज़ लिए 
कोयल के कूहु सी बोला करती,
रातों में ऊंगली देकर चंदा को मामा बोले,
तितली को हाथों में लेकर 
बादल की आंखे खोले,
सूरज को भी आंख दिखाकर
बोले वो, मुझको परछाईं है,
आंखें भी जो देख नहीं सकतीं
वो मेरा साया, भाई है,
नटखट सी बनकर फिर
छुई-मुई सी मुरझाया करती,
बरसातों की बूंदों को मुठ्ठी में भरकर
रिमझिम-रिमझिम गया करती,
कभी मनाओ तो कहती-
वो फूलों की डाली डोला क्यों ?
उड़ चलीं चिरईयां सारी
तूं बोल पपीहा बोला क्यों?
गुनगुन-गुनगुन गीत पुरानी
सुन-सुन कर कहीं मयूरा नांच रहा,
झरनों में झिलमिल-झिलमिल राग लिए
कोई झरोखें झांक रहा,
आज सुहावन सावन आया 
बह चली जगत में फिर पुरवाई,
भेंट सहित सौभाग्य लिए
रेशम में बंधने को कई कलाई।
- Rishabh Bhatt

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