जब पहली बार तुमने
धीरे से मेरे कान में कहा —
"आज फिर वो दिन शुरू हुए हैं,"
तो ना तुम्हारी आवाज़ काँपी,
ना लब…
बस आंखों में सच्चाई थी
और चेहरे पर तसल्ली का भरोसा
कि मैं समझूँगा,
मैं सुनूंगा —
बिना टोक, बिना झिझक।
तुमने कहा —
"आज बहुत भारी लग रहा है… ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे अंदर किचड़ सा भर रहा हो,"
और मैं बस सुनता रहा…
ना घबराया,
ना ‘taboo’ समझा,
क्योंकि तुम्हारे लिए ये
शब्द नहीं — अहसास थे।
तुम मुझसे कहती थीं —
"क्या तुम्हें अजीब नहीं लगता ये सब सुनकर?"
और मैं कहता —
"अजीब तो तब लगता है जब तुम्हारे दर्द को लोग मज़ाक समझ लेते हैं।"
तुम खुलकर बोलती थीं —
कि कौन सा pad comfortable लगता है,
कौन सा brand rash करता है,
कौन से दिन सबसे ज़्यादा तकलीफ़ होती है,
और कौन सी रातें बिल्कुल नींद नहीं देतीं।
तुमने कहा था —
"मुझे अच्छा लगता है कि तुम्हारे सामने सब कुछ कह सकती हूँ… जैसे कोई best friend, कोई diary, कोई साया..."
और मैं सुनता गया,
हर शब्द तुम्हारी रूह से निकला लगता था,
हर बात तुम्हारी हिम्मत का गवाह।
तुम्हारा मुझसे ऐसे बात करना,
जैसे तुम्हें पता हो —
कि अब मैं सिर्फ़ आशिक़ नहीं,
तुम्हारे वजूद का भी एक जिम्मेदार हिस्सा हूँ।
कभी-कभी तो तुम अपने cramps का scale बताती थीं —
"आज 7/10 है, पर manageable है।"
और मैं कहता —
"आज के लिए movie cancel,
तुम्हारे लिए ginger tea और गोद available है..."
तुम कहती थीं —
"यार, इस बार बहुत flow है… लग रहा है जैसे energy drain हो रही हो,"
और मैं कहता —
"energy वापस लाने के लिए
तुम्हारा मुस्कुराना काफ़ी है,
बाकी पोहा और dark chocolate भी मँगवा लिया है।"
तुम्हारा ये खुलकर कहना —
कि कौन सी बात परेशान करती है,
कब चिड़चिड़ापन हद से ज़्यादा हो जाता है,
और कौन सी बातों पर कोई बोले ही ना —
यही तो मोहब्बत की असल बुनियाद होती है।
तुम कहती थीं —
"कभी-कभी बस किसी का हाथ थाम लेने से
दर्द कम नहीं होता… पर डर चला जाता है।"
और मैं तब तक तुम्हारा हाथ नहीं छोड़ता था
जब तक तुम्हें नींद ना आ जाए।
तुम मुझसे कहती थीं —
"अरे यार, imagine करना…
अगर मर्दों को periods होते तो शायद छुट्टी भी होती, ताज भी होता।"
मैं मुस्कुरा कर कहता —
"और शायद हमें तब समझ आता कि
तुम हर महीने कितनी बहादुर होती हो।"
तुम्हारी खुली बातों ने मुझे mature नहीं, इंसान बनाया।
तुम्हारे इन बेझिझक जुमलों ने
मुझे gender roles से ऊपर उठाया।
और मैंने सीखा —
कि ‘care’ सिर्फ chocolates लाना नहीं,
बल्कि वो भी सुनना है
जो दुनिया को ‘बोलना’ भी गुनाह लगता है।
तुम कहती थीं —
"शरीर से ज़्यादा थकान दिमाग़ में होती है…"
और मैं तब किताबों की जगह
तुम्हारे लिए lullabies गुनगुनाता था।
Periods को तुमने कभी शर्म नहीं समझा,
और मैंने भी कभी एहसान नहीं जताया।
तुम बोलती रहीं,
मैं सुनता रहा,
फिर एक रोज़ तुमने कहा —
"तुम मेरे लिए safe space हो… मेरी सबसे अपनी जगह।"
"जब तुमने मुझसे बिना शर्म के हर तकलीफ़ बताई,
तब समझ आया —
भरोसे का मतलब क्या होता है।
और जब मैंने बिना हिच
क वो सब सुना,
तब मुझे खुद पर फ़ख्र हुआ —
कि मैंने तुम्हें तन्हा नहीं,
पूरा और समझदार प्यार दिया…"
Book : नींद मेरी ख़्वाब तेरे written by Rishabh Bhatt