दिल्ली की मेट्रो और इक अधूरी तलाश

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(1) मेट्रो की खिड़की से बाहर देखती एक बेचैन रूह


दिल्ली की सड़कों सा मेरा दिल भी भारी है,
हर मोड़ पर कोई शक्ल तुम्हें तलाशती है।
भीड़ में हूँ पर खुद को तन्हा सा पाता हूँ,
हर स्टेशन पर इक उम्मीद से उतर जाता हूँ।

खिड़की से झाँकती है एक धुंधली सी तस्वीर,
जिसे साफ़ करने को मैंने वक़्त की उँगली से लिखा है।
वो जो ग़ुबार था तेरे नाम का —
अब हर साँस में मेरी गली बनकर समा गया है।

(2) सुराग़ों की शबनमी लकीरें


इक छाया थी… इक अदा थी…
इक ख़ुशबू थी जो शाहदरा की पवन में बसी थी।
कभी कनॉट के कोनों से,
कभी लाजपत की भीड़ से,
कभी कश्मीरी गेट की सीढ़ियों से
इक दस्तावेज़ जोड़ता गया मैं।

तुम्हारा नाम मुझे नहीं मालूम,
मगर तुम्हारा लहजा मेरी यादों में मुकम्मल था।
कभी तुम्हारे हँसने की झंकार
सरोजनी के नुक्कड़ पर सुनी थी,
तो कभी यूनिवर्सिटी के लॉन में
तुम्हारे सैंडल की आहट पहचान ली थी।

(3) मिलने का आज का दिन


आज वही दिन था —
जब नियति ने मुझसे वादा किया था कि —
"शायद इस बार वो सामने होगी"।
दिल धड़क रहा था —
उसी तरह जैसे पहली बार
नाम तक न जानते हुए भी
तुमसे मोहब्बत हो गई थी।

मैं मेट्रो की भीड़ में
बिलकुल उसी लम्हे का इंतज़ार कर रहा था —
जब दरवाज़े खुलें
और तुम दाख़िल होओ।

मगर…

आज फिर से
तारीख़ वही रही
मुलाक़ात ग़ायब रही।

(4) “ज़िंदा रहने के लिए एक मुलाक़ात ज़रूरी है सनम…”


मेरे कानों में
आज भी वही गीत बज रहा है —
जिसे मैं हज़ारों बार सुन चुका हूँ,
मगर आज…
हर बार की तरह
ये लफ़्ज़ सीने में छुरियों की तरह उतरते हैं।

"ज़िंदा रहने के लिए
एक मुलाक़ात ज़रूरी है सनम…"
क्योंकि अब मेरा साँस लेना
तुम्हारे दीदार की शर्तों पर टिका है।

(5) वजूद की तलाश


दिल्ली की गलियाँ मुझसे पूछती हैं,
"तू किसको ढूँढ रहा है…?"
मैं बस मुस्कुरा कर कहता हूँ —
"एक ख़्वाब, जो ज़िंदगी बन गया…"

जिसने कभी मेरा नाम नहीं पूछा,
मगर उसकी यादें
मेरे नाम के साथ जुड़ गईं।

वो कोई नाम नहीं,
वो मेरी मोहब्बत की परिभाषा है,
वो मेरी धड़कन का सुर है
जिसे मैं गाता नहीं, बस जीता हूँ।

(6) आने वाला हफ़्ता — या तो 'हम' या 'हमेशा के लिए 'अलविदा'


शायद यही हफ़्ता है —
जो हमारी कहानी का आख़िरी पन्ना भी हो सकता है,
या पहला नया अध्याय…

मैं अभी भी सुराग़ जोड़ रहा हूँ —
तुम्हारे पसंदीदा रंगों से,
तुम्हारी बोली की बारीकियों से,
तुमसे जुड़ी हर बेआवाज़ याद से।

मेरे अंदर एक आरज़ू है,
जो चुपचाप कहती है —
"अगर तू बना है मेरी रूह का हिस्सा,
तो एक दिन तेरी रूह भी मुझे पुकारेगी…"

(7) और अगर नहीं भी पुकारा…


तो भी मैं हारूँगा नहीं।
मैंने इश्क़ को तुममें पाया है,
तुम्हारे इंकार में भी मेरा सुकून है।

मेरी कोशिशें
तुम्हारे दीदार की नहीं —
तुम्हारे एहसास को जीने की हैं।

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(8) उसका नाम मेरे होंठों पर कभी न आया…


मैंने कभी तुम्हारा नाम नहीं लिया,
ना महफ़िल में,
ना तन्हाई में…
बस तुम्हारी यादों को अपनी सांसों में बसाए रखा।

तुम्हारे नाम का जिक्र,
मेरे होंठों से कभी न निकला,
जैसे इबादत में
रब का नाम बिना आवाज़ लिए किया जाता है।

हर दुआ में तुम्हें माँगा,
बिना तुम्हारे नाम को ज़ुबां तक लाए…
तुम इश्क़ का वो फ़र्ज़ बन गई
जिसे निभाया तो बहुत… मगर जताया कभी नहीं।

(9) वो मेट्रो की सीट जहाँ मैंने तुम्हारे लिए जगह छोड़ी थी


राजीव चौक की भीड़ में भी,
जब लोग एक इंच तक के लिए लड़ते हैं,
मैंने हमेशा उस कोने की सीट
तुम्हारे लिए ख़ाली रखी।

हर बार जब मेट्रो खुलती,
दिल को ये वहम होता —
"शायद आज तुम सामने से चुपचाप आ जाओगी,
बैठ जाओगी उस जगह…
जिसे मैंने तुम्हारे आने से पहले से ही तुम्हारे नाम कर रखा है।"

तुम नहीं आई,
मगर वो जगह अब भी तुम्हारा इंतज़ार करती है।

(10) एक बार और अगर देख लूं तुम्हें…


अगर एक बार फिर तुम्हारा चेहरा दिख जाए —
तो मैं कुछ कहूँगा नहीं,
बस नज़रों से पूछ लूंगा:
"क्या तुम भी महसूस करती हो वो सब,
जो मैं हर रोज़ सहता हूँ?"

तुम्हारी आँखों में वो चमक हो —
तो समझ लूंगा,
तुम्हारी होंठों पर ख़ामोशी हो —
तो भी समझ जाऊँगा।

मैं कुछ कहूँगा नहीं —
क्योंकि मोहब्बत को बोलने की ज़रूरत नहीं,
वो तो बस
एक निगाह में उम्रें जी लेती है।

(11) ख़ामोश मोहब्बत, जो कह न सका


तुम हर रोज़ मुझसे ग़ाफ़िल रही,
और मैं हर रोज़ तुम्हें सुनता रहा —
तुम्हारे ख़ामोश क़दमों की आहट,
तुम्हारे साड़ी की सरसराहट,
तुम्हारे कान की बाली की खनक…

मैंने कभी इश्क़ का एलान नहीं किया,
क्योंकि मुझे डर था —
कहीं मेरी आवाज़
तुम्हारी मुस्कान को चुभ न जाए।

इसलिए मैंने इश्क़ को ख़ामोश रखा —
जैसे कोई सूफ़ी अपनी रूह से बात करता है।

(12) अगर इस जन्म में नहीं, तो अगले में तुम्हारा इंतज़ार करूँगा


अगर इस बार भी तुमसे न मिल सका,
अगर इस हफ़्ते की सारी उम्मीदें
फ़िर एक धुंध में खो गईं…
तो मैं हार नहीं मानूँगा।

मैं अगले जन्म के ख्याल में
तुम्हारे नाम की तस्बीह लेकर
हर रात तुम्हारे ख़्वाबों में भटकूँगा।

तुम्हारे गली की पहचान
अपने वजूद पर लिख लूंगा,
और फिर जब ज़िंदगी दोबारा चलेगी —
तो तुम्हे सबसे पहले
अपनी आँखों से ढूँढ निकालूँगा।

(13) आख़िरी सफ़र — मेट्रो की एक और अधूरी यात्रा


आज फिर वही मेट्रो थी,
वही भीड़, वही स्पीकर की आवाज़ —
"Next Station is Mandi House"
पर आज आवाज़ें धुंधली थीं…

शायद मेरी उम्मीदों की तरह,
शायद मेरी रूह की तरह।

मैं उतर गया उस स्टेशन पर —
जहाँ तुमसे मिलने की उम्मीद थी…
मगर तुम नहीं थी।

Metro station

मैंने आज तुमसे आख़िरी सवाल किया —
"क्या तुम भी कभी मेरा इंतज़ार करती हो…?"
लेकिन जवाब,
सिर्फ़ ख़ामोशी में आया —
जैसे कोई अधूरी कहानी
आख़िरी पन्ना बिना लिखे ही ख़त्म हो गई हो।

"ज़िंदा रहने के लिए
एक मुलाक़ात ज़रूरी है सनम…"
इस गाने की वो लाइन,
अब मेरी रूह की आवाज़ बन गई है।

अगर तुम कभी मिल भी जाओ —
तो मैं तुम्हें नहीं पूछूंगा
"कहाँ थी इतने दिन?"

बल्कि कहूँगा —
"अच्छा हुआ…
कि तुम मिली,
चाहे देर से ही सही…"

Book : नींद मेरी ख़्वाब तेरे written by Rishabh Bhatt 

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