सिंधपति दाहिर ; स्मृति - 6

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आंखें भर आई पाठक की,

सुन देवल की विगत कहानी,

तिनकों के हलचल से आई,

बादल के नैनों में भी पानी,

 

हाय! ईश क्या दोष रहा होगा,

उन जन के प्राणों का ?

जिन पर मृत्यु बन आई,

घातें अरि के बाणों का,

 

कहां धूप है ? कहां छांव है ?

लिप्त हुएं सब,

एक दशा, रण सुनने की,

आगे क्या होगा अब ?

 

बोला पाठक पुस्तक से,

रण का अगला आख्यान कहो,

सिंधपति दाहिर के पौरुष की,

विस्तृत तुम व्याख्यान कहो,

 

ब्रह्माराज का पाण्डित्य कहो,

पुरुषार्थ कहो, मान कहो,

बोल रहा माटी का कण-कण,

वो भारत का अभिमान कहो,

 

प्रेम बसाकर हृदय सरित में,

मृदुल कुसुम मधुदान कहों,

शीष नवां उन महापुरूष को,

मन्दित-मन्दित गुणगान कहो,

 

हे ज्ञानी, प्राणपति के प्राणों पर,

विपदा कैसी आई ?

कपटी अरि ने कायरता की,

क्या कोई जाल बिछाई ?

 

फिर कैसे मर्त्य हृदय में,

जय का एक तूर्य हुआ,

इतिहास जलाकर वो राजन,

कैसे बुझा हुआ एक सूर्य हुआ ?

 

पाठक के प्रश्नों को सुनकर,

पोथी ने आगे बोला,

अंतिम दृश्य छुपा शब्दों में,

लोहू की बूंदों से खोला,

 

पहुंच गई, अरबी सेना,

आरोर महायुद्ध भूमि पर,

पीने को शोणित डोली,

काल-कपाली की खप्पर

 

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सज गया दरबार सिंध में,

तुरत हुए कटिबद्ध सभी,

अमिय-बोल का मूल्य मिलेगा,

होगा जब युद्ध तभी,

 

सिंधु-खड़ा-बन शैल मार्ग में,

स्वयं राम ने धनुष उठाया,

मृदुल भाष का अपमान हुआ,

तो भय ने मूल्य चुकाया

 

अरि गरज रहा सीने पर,

रणधीरों! तलवार उठा लो,

बोलें सिंधपति महाधिराज,

सामंतों! हथियार उठा लो,

 

शत्रु की हिम्मत देखो,

युद्ध भूमि में ललकार रहा,

प्रतिपल बढ़ता कदम-कदम वह,

संगर तुम्हें पुकार रहा,

 

देवल की हालत देखा सबने,

करवाल शीष पर आई,

सूरज से प्यास बुझाने को,

जुगनू ने आंख गड़ाई,

 

केसरिया बाना पहने वीरों,

रण-रंग दो माटी का,

मां-बहनों पर आंख उठी है,

रंग बदल दो घाटी का,

 

हो प्रहार प्रत्येक-एक पर,

गरल रक्त में डूबे,

भारत पर आंख उठाने की,

डूब जाएं अरबों के मनसूबे,

 

मैं दाहिर, युद्ध-भूमि में,

चला समर को लड़ने,

रक्त-जुझारू पी-पीकर,

सामर्थ्य उजागर करने,

 

शोणित पी जाऊं करवालों से,

काल रमा-काली-बनके,

खरतर-रविकर-माला-सी,

कर्तन कर, तन पर चढ़के,

 

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युद्ध विजय लाया, तो

योद्धा जमात यह पूजा जाएगा,

शीष चढ़े माटी को, तब भी

कण-कण वर्षों तक गाएगा,

 

दुनिया के राजा-राजन में,

हम सब की बातें होंगी,

जब-जब भविष्य, भूतकाल देखेगा,

स्वर्णमयी यह रातें होंगी,

 

रणधीरों, खून बही है माटी पर,

समय नहीं रण रोने का,

म्यानों से जंगी तलवारों को,

आज वक्त है धोने का,

 

हे वीरों, खर-खप्पर-

खग-खगोल बदल दो,

गज-दिग्गज-कर-कर-से-टक्कर-कर,

बाज-बाजि भूगोल बदल दो,

 

अस्थि शिथिल हो जाए,

लहू प्रलय बन जाए,

मृत्यु सदृश नर्तन करती,

काल शीष पर मडराएं,

 

हो ऐसी विजय, विजय-

केसरी का नभ पर बाना हो,

बूंद-बूंद शोणित से मानों,

दूध-दूध का कर्ज चुकाना हो

 

हा! पेड़ों पर पत्ते,

तब तक बसंत नहीं लाते हैं,

जब तक गिर डाली डाली से,

आप आप ही मुरझाते हैं,

 

यदि मोह करे फल पेड़ों से,

तो कीड़े ही लगते हैं,

मूर्ख वही, मृत्यु से डरकर,

जो युद्ध भूमि से भगते हैं,

 

जीवन को स्थिर मान,

धन-धान्य सजाने वाला,

नहीं जानता अमर हुआ है,

अंतिम मूल्य चुकाने वाला,

 

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नर का वैभव देख,

स्वयं इंद्र ने शीष झुकाया,

केशव को आगे देख,

पल-भर भी नहीं कर्ण डगमगया,

 

हा, मृत्यु से वे डरते हैं,

जो कायरता में पलते हैं,

शेरों से, वक्ष दिखाने वाले,

कहाँ मौत से डरते हैं?

 

बडा़ धर्मनिष्ठ बनता है शत्रु,

औरों को काफिर कहता है,

भारत की संस्कृति देखो,

सम्पूर्ण धरा में भ्रात भाव रखता है,

 

वक्षस्थल में बौद्ध-जैन,

नाना प्रकार के पंथी पलते,

सर्प सदृश उनको देखो,

अण्डे देख निगलतें,

 

नहीं पंथ की बात,

धर्म यहाँ मातृत्व सदा,

जन्नत वो जाने नर-संहारी,

बलिदानी पातें स्वर्ग सदा,

 

सरिता सम बहने वाले ही,

मृदुल अचल बनते हैं,

वरना तालाबों में तो केवल

काई ही जमते हैं,

 

किंचित संदेह अगर हो,

विलम्ब नहीं,कहो वीरों!

रण चलने से पहले,

विस्मय मन के,दहो वीरों!

 

आज नरों का सुर पर,

आघात चाहता हूं,

अर्क चमकता ज्यों ही,

भारत का प्रभात चाहता हूं,

 

फिर कोई आंख गड़ाने से पहले,

सौ बार सोचकर डोले,

बलि वीरों का, पीढ़ी

शीष नवांकर बोले,

 

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मैं तुममें झंझावात की,

झन-झन झंकार चाहता हूं,

हर धनु में मेघमयी,

टन-टन टंकार चाहता हूं,

 

चाहता हूं प्रलय को,

भुजाओं में समेट लेना,

स्पंदन चढ़ा अरि छातियों पे,

रणभूमि में आखेट खेलना,

 

समय से तेज,अरि पर

शर-घात चाहता हूं,

नाग सा फुफकार उत्साह में,

हर वीर में बात चाहता हूं,

 

चाहता हूं सिंधु को,

इस सिंध का ताण्डव दिखाना,

सिरों को काट अरि के,

काली चरण में चढ़ाना,

 

मनुज के निज प्रेम की शक्ति,

जगत को दिखाना चाहता हूं,

नर का रुद्र रूप,

नरों को ही बताना चाहता हूं,

 

चाहता हूं हयों के टाप में,

पाषाण सी चिंगारियां चम-चम,

लहू की धार जो सागर बने,

ऐसा मनोहर युद्ध संगम,

 

हा! विभा के पुष्प को,

भू पर चढ़ाना चाहता हूं,

वीरता के रश्मियों से,

भारत सजाना चाहता हूं,

 

चाहता हूं,आंखें मिलें जब,

मृत्यु में भी भय हो,

अभय उर से चले जब प्राण,

निस्तब्ध रथ के हय हों,

 

हलाहल से हलाहल,गरल

रगों में घोलना चाहता हूं,

तुला,शर मार करके,

सिरों को तोलना चाहता हूं,

 

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चाहता हूं धरित्रि में मिलाना,

धरा के भूखें अरि को,

पवन के वेग से, छोड़ना,

हरिण पर हरि को,

 

हां! मैं तुममें,सिंह को

जगाना चाहता हूं,

लड़ें थें राम जिस पर,

वह स्यंदन मगाना चाहता हूं,

 

चाहता हूं क्रुद्ध नाहर की भुजाएं,

जो छातियों में जा समाएं,

फाड़ सीने को,लहू उदगारना,

बन तिलक वह चमचमाएं,

 

शत्रु के सारे अपकर्म का,

क्रिया-काण्ड चाहता हूं,

हां मैं भुज-कर्म से दिप्ती करना,

यह ब्रह्मांड चाहता हूं।

 

- Rishabh Bhatt

 


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