सिंधपति दाहिर ; स्मृति - 3

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जय हो ! जय हो ! उस वीर सुयश तेज प्रकाश अनल की,
जिसकी शोभा में अंकित सूर्य, चन्द्र, दिग्गज नभ तल की,
 
जिसके विराट हृदय की प्रतिभा से उज्ज्वल वसुधा नित होती है,
साधु ! साधु ! गूंज गगन में कुसुमित जन आनंद पिरोती है,
 
जय हो ! उस ब्रम्ह महाप्रभु की जिनके आभूषण हों त्याग,
जय हो ! उस क्षत्रिय महाधर्म की जिसके भुज भुज में हो पौरुष की आग,
 
जय हो ! उस कर्मनिष्ठ जन के गौरव की प्रतिभा को,
जिससे आलोकित बन्धुत्व धरा पर, जय हो ! उस दीप प्रभा को।
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सो पाठक आज तुम्हें वो इतिहास उजागर समझाता हूं,
सिंध क्षेत्र के उस महासमर की गाथा तुम्हें सुनाता हूं,

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सुनो धैर्य से उस धीर पुरुष को, उसके पौरुष को, बल को,
सत्कर्म सुनो उस ब्रह्मराज की, विस्तृत भारत-भू के संबल को,
 
वो दानी था कि राधेय स्वयं उसके ललाट पर विद्यमान थे,
वो भोले का डमरू था जिससे कम्पित भू, कण-कण आसमान थे,
 
वो प्रेम भरा तो ऐसा कि निठुराई मधुबन की हो,
वैराग्य कुसुम का श्रृंगार धरे, मानो मंदिर का एक पुजारी हो,
 
पग स्पंदन में ज्यों ऊषा की किरणें सूरज को छोड़ें,
मानो घनतम तिमिर चीर के छोड़ दिए हों अपने घोड़े,
 
हाथों में वो भाल लिए, दम्पत्ति स्वरुप विकराल लिए,
टंकारों से रण गूंज उठे, कर में नभ-पाताल लिए,
 
वो चलता था तो पदचापें चल उठती थीं घर-घर से,
छूने को पदचिन्ह पुजारी की, नगर-नगर से, डगर-डगर से,
 
सिंधपति दाहिर की संज्ञा ले करके पुरखों को गर्वित करता था,
वंशज वो चच महावंश का, कुल की मर्यादा को धरता था।
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सो एक रोज विधि ने रची गजब की पहनाई,
एक संदेशा अरब देश से, चल राजन के गृह को आई,
 
राजन ने भी सत्कार किया, विश्राम हेतु आधार दिया,
किंचित मन में अकुलाहट ले एक प्रश्न दरबार किया,
 
बोले दरबारी सब मिलकर, क्या दृश्य लिए तुम आए इधर ?
हे दूत कहो ! क्या अरबों में मैत्री के भाव आये निखर ?
 
क्या गत वर्षों का पछतावा है या अल्लाफी पर दावा है ?
क्या सुख वैभव के भाव जगे या रण का ही पहनावा है ?
 
क्या सूदूर पहुंच कोई राग गई या प्रखर ताप की आग नई ?
क्या संगर का प्रसाद जगा या उर में बस अनुराग गई ?
 
क्या कारण है कि पश्चिम में पूरब के फिर सौंदर्य सुहाएं ?
सुनने को धावक की बातें, मौन रूप दरबारी सब धाए।
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बोला चर निश्चय ही यह संबंधों की है बात नई,
कुछ शर्तें हैं, कुछ सौगातें भी, जो रात गई सो बात गई,

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सीधा मुख्य विषय पर आता हूं, सागर का दृश्य दिखाता हूं,
सुरमा-काजल-लाली-लश्कर, मधु मैरेयक भी गिनवाता हूं,
 
ताज-तिजोरी हीरा-मोती, कुंतल-भालें असि व ढालें,
सिक्के-माणिक-पारस-पत्थर, स्वर्ण-रजत आभूषण मालें,
 
शाही कण-कण, रत्न आभूषण, सौंदर्य सुहाए सौ बालाएं,
सौ-सौ सम्मुख स्वर अभियंता, गूंजें-गाजे-बाजे-गाएं,
 
सौ वस्त्र रेशमी, सौ नवनीत सदृश कालीन रेशमी,
सौ सिंहासन को सज्जित प्रतिमाएं, सौ सुन्दरियों की सौंदर्य रेशमी,
 
सौ व्यापारी के दल की भरपाई, लंका से सागर को आई,
एक-एक का कर्ज तुम्हें है, ऋण तुम पर है पाई-पाई,
 
तेरे ही सागर की सीमा में, एक लुटेरों का बेड़ा लूटा,
धन-दौलत की सब खान ठही, जर्जर बस कश्ती ही छूटा,
 
टूटा-फूटा सब कुछ छोड़ो, संबंधों में न कोई बाधा हो,
रण गर्जन की है प्यास नहीं, पर सिंध मुझे यह आधा दो,

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यदि मानो तो सौगातें दूं, अरबी मधु में रंग रातें दूं,
रंग-बिरंगी पंखुड़ी में झिलमिल झिलमिल बरसातें दूं,
 
झिझको यदि इनसे तो तलवार उठाऊं, रण गर्जन से ही प्यास बुझाऊं,
रक्त स्नान करूं केसरिया से कण-कण को शोणितमय कर जाऊं,
 
क्षण है ! सोंच-विचार करो तुम, संधि-सुखद स्वीकार करो तुम,
आधे सिंध पे अरबी सेना, आधे पर अधिकार करो तुम।
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- Rishabh Bhatt


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