मेरे सीने में लगी तुम आग को कैसे बुझाओगे?
जल रही सौ पार दसकें पीढ़ियां घुटनों तले,
आंशूओं की धार में फिर उड़ चलीं कुछ बुलबुलें,
ख्वाब आंखों में लिए इक नई दुनिया संवरती,
कल सही सब सोंचते — पर आज किसको भी खबर थी?
ये आज मुझको जा रहा लेकर वहीं उस दौर में,
निकला जहां से एक दिन वापस उसी फिर शोर में,
ये ख्वाब सीने में जली तुम आग के सपने सजाओगे,
मेरे सीने में लगी तुम आग को कैसे बुझाओगे?
खून पी पीकर पलीं फसलें किसानी खेत में,
इक बटोही पी गया बिखरा समंदर रेत में,
गोद सूनी आंशूओं से आज भी रोती कहीं तस्वीर ले,
पर हंस रहा अपने कफ़न पर आज वो — यूं देखकर मंजिल नई तकदीर ये,
इक राजनेता राजनीति की मिसालें दे रहा,
उग्र सा उतरा युवा लेकर तिरंगा — ये कहां?
सांसें झुलसती झुण्ड में इन क्रोध के मुझमें जहर कब तक मिलाओगे?
मेरे सीने में लगी तुम आग को कैसे बुझाओगे?
बुझ गई रौशन मशालें — देख ये नायाब सूरत सांझ की,
हांथ में लेकर तराजू तोलतीं बढ़ती फकीरी रांझ की,
इन ख्वाब में निर्भर शिराएं डूबतीं लेकर सहारा नाम का,
फिर बन गई नीलाम सी देकर हवाला काम का,
कातिलों की कातिली में डट खड़ी हैं आज भी मेरी विरासत शान से,
आग का देकर हवाला बोलते खुद को विरासत, बन गयें अनजान से,
पर गुमसुदा तुम कर रहे मुझको दिमागी खेल में,
इन बन गयें इतिहास को कैसे भुलाओगे?
मेरे सीने में लगी तुम आग को कैसे बुझाओगे?
🌿 Written by
Rishabh Bhatt 🌿
✒️ Poet in Hindi | English | Urdu
💼 Engineer by profession, Author by passion
Wow,your thinking is great 👍👍👍👍 apke knowledge me deepness hai jo shayad har kisi me nahi hoti real amazing ..
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