रुपसी


वो विस्तृत गगन की चांदनी महि पर चली पग डोल‌ कर,

बंकिम नयन के बाण से वो भेदती मधु बोल कर,

है बांधती हर सांस को बिखरे अलक के जाल,

नौका बनी सी बह चली बहते सरित की धार में,

वो प्रेम की बहती पवन रहती समय के साथ में,

ये ओस की बूंदें छूएं जो हीरकों से हाथ में,

श्रृंगार सा मुस्कान में करती ऊषा रंगीन हैं,

वो तितलीयों के रंग में जैसे सरित में मीन है।
 
- Rishabh Bhatt 
 
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रोमियो-जूलियट‌ और सलीम-अनारकली की कहानियां तो बहुत प्रचलित है जिसे आप ने सुना ही होगा पर शायद ही आप राजा पुरुरवा और उर्वशी की कहानी से परिचित होंगे जो ना केवल एक कहानी बल्कि हमारे भारत के पुरातत्व सभ्यता को प्रर्दशित करता है। जिसे रामधारी सिंह दिनकर ने अपने छन्दों से कुछ दशक पहले पुनर्जीवित किया।

यह कविता भी महराजा पुरुरवा के जीवन काल की वह कल्पना है जब वह उर्वशी से अंजान थे और उन्हें एक रात के स्वप्न में उर्वशी का आभास होता है।                   

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