महारानी पद्मिनी की जौहर गाथा ; भाग-3

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अस्वीकरण


यह कविता स्थानों, पात्रों, घटनाओं के अनुक्रम, स्थानों, बोली जाने वाली भाषाओं, नृत्य रूपों, वेशभूषा और ऐसे अन्य विवरणों के नाम के संदर्भ में ऐतिहासिक प्रामाणिकता या सटीकता का अनुमान या दावा नहीं करता है। हम किसी भी व्यक्ति (व्यक्तियों), समुदायों और उनकी संस्कृतिओं, प्रथाओं, अभ्यासओं और परंपराओं के विश्वासों, भावनाओं, भावनाओं का अनादर, अपमान या अपमान करने का उद्देश्य नहीं रखते हैं।

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विहगो में कलरव न था,न कुसुम कुमारों ने नैना खोली,
अर्क तिमिर का पर्दा डाले,नभ में न फैली थी रोली,

संगर की तिथि आ पहुंची थी,ऊषा के किरणों की देरी,
ससि पर नजर गड़ाए बैठे सब,परिचारक करते रण फेरी,

क्षण शेष बचे आरोहण के,संगर भी शोणित प्यासी,
दिनकर के किरणों में देरी,फिर बहे लहू सरिता सी,

सरसी एक किरण आ पहुंची,घन अपने आलय से डोला,
डम-डम डम-डम डंका बाजे,रश्मि ने पथ रण का खोला,

खुला सिंह द्वार किले का,डगर डगर डगमग डोले,
रावल रणधीरों की सेना,ले बरछी बरछी भाले भाले बोलें,

बोले नंगी तलवारों से,घोड़ों से घुड़सवारों से,
बोले दुर्जय ढालों से,खंजर से बरछी भालों से,

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आरम्भ हुआ रण कम्पित कण-कण,आरव तोपों का क्षण,
क्षण गज हुंकार मिले,क्षण खंजर फालों बरछी भालों का रण,

रण हय के विकल वितुण्डों का,रण चादर से फैले मुण्डों का,
रण हाथ लिए करवालों का,रण अरि के असुरी झुण्डों का,

रण भू तन से पाट रही,रण रक्त सरित की धार बही,
लहरें भी लहूलुहान उठें,अरि शोणित में तलवार बही,

पर एक समय आया ऐसा,आंखों से ओझल दिनकर था,
संतापो ने उपवन को घेरा,आकुल हो फिरता हिमकर था,

भूधर भी सागर में डूबा,सागर जैसे घट में था,
खग कुल में कोलाहल छाया,कलरव अपने हट में था,

हट अरि क्रूर कटारी की लगी रतन को,घन को भी था रुला दिया,
देख सकी न अवनी सुत को,आंचल में अपने सुला लिया,

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आंसू से ‌बरस उठा जग,जय कण-कण में फैले रोली की,
जय बोल उठी उपवन की बेला,जय बलिदानी होली की,

जय जननी चित्तौड़ धरा की,जय भूमि रणधीरों की,
अरि शोणित में तलवार धूलें,जय जय हो‌ रावल वीरों की,

देख अलाउद्दीन दृश्य ये,जय मद में चूर हुआ,
मिथ्या सागर भी पी लूं अब,ससि शीतलता से दूर हुआ,

गहन अंध उर में भरकर,राहू ससि की ओर चला,
कदम-कदम ले-ले कर चलता,सतियों पर घनघोर बला,

उधर उगा विस्मय का सूरज,संतापों के घेरे में,
संका में ससि डूब रहा,छवि ऐसी रावल डेरे में,

संग रानी चली नारियां,मिला-मिला कर कदम कहां,
अधरों पर आमोद बसा,नैनों से सावन बरस रहा,

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नैनों में ज्वला धधक रही थी,स्वसों में प्रखर चिंगारी थी,
जौहर की लपटें अम्बर छूतीं,दिनकर पर भी भारी था,

प्यारी स्वासों की प्रिय को,कर-कर नमन थिरानी थी,
पग ज्वाला में कुसुम बिछे हों,वो अनमोल रवानी थी,

करतल में लाली-लाली थी,नीरवता में कटु प्याली थी,
उस वीर प्रसवनी मां की,आंचल जैसे खाली थी,

पानी-पानी थी प्रतिपल,मुरझाई सी ध्वज उच्छल,
आहत थी उपल किले की,बरस रही थी पल-पल अविरल। 
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- Rishabh Bhatt
 
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