सो गई थी शून्य में
संदर्भ की शाखा उगी है,
अब प्रेम की कल्पना में
कर्तव्य की आभा जगी है,
छिप गईं थीं फलकें गिरा जो
शशि वही, संध्या नई है
उठ गया है वेदना से
कवि वही कविता नई है।
भीष्म की आंखें खुली
मौत ने चूमा उन्हें जब,
लुट गई हो लाज क्रीड़ा में
कृष्ण के रहते हुआ कब ?
कौन्तेय को दे दी विजय
गीता वही, गरिमा कई हैं
स्वाद ये जिसने चखा
कवि वही कविता नई है।
पथ बनाने को ज़िन्दगी की
यदि रात भर बस जागना हो,
संकल्प कितने क्षण टिकेंगे
यदि राम सा सब त्यागना हो ?
छवि हृदय में बस गई एक ही
मूर्ति वही, महिमा कई है
है पूजता पूरे लगन से
कवि वही कविता नई है।
धूप थी, अब छांव है
सामर्थ्य की उतरी नदी में नाव है,
हम कंकड़-पत्थर से डरते नहीं
संघर्ष की सीढ़ियों पर पांव हैं,
रात है राहें बना लो रौशनी
चलते रहो, चंदा कई हैं
दीप बनकर जल रहा हूं
कवि वही कविता नई है।
क्या इंसान की आंखें
वही हैं देखती ! जो दिख रहा ?
स्वप्न की करके सवारी
अंध भी जीवन लिख रहा,
उम्मीद की स्याही में
पात्र वही, पन्ने कई हैं
दृष्टि सबके अलग हैं, पर
कवि वही कविता नई है।
पंक्षियों के घोंसले में
बाज के पर आते नहीं हैं,
वीरता की आंख से
स्वप्न मुड़कर जाते नहीं हैं,
बस समझ की फेर है
खेल वही, खेलता कोई है
जीत है सबके निकट
कवि वही कविता नई है।
- ऋषभ भट्ट (क़िताब : ये आसमां तेरे कदमों में है)