जेहाद


हंसती खेलती ज़िंदगी को,

कुछ लोगों ने पल भर में बाट दिया,

जेहाद की छुरी से,

मेरे अपनों का गला काट दिया,

इससे सिर्फ मेरे सपने ही न टूटें,

भाईचारे की एक और डोरी टूट गई,

ज़िन्दा लाशों को देख,

आंखों से आंसू की मोती छूट गई,

ये हक किस मस्जिद ने दिया ?

किस मौलवी ने पढ़ाया है ?

खुदा को मानता हूं मैं भी,

पर क्या उसने इस कानून को बनाया है ?

क्या उसने दी है इसकी इजाज़त ?

खुशी की बस्ती समशान कर दो,

किसी से छीनकर दिवाली,

अपनी रौशन रमजान कर दो।


नहीं, ये खुदा नहीं, पर किसने सिखाया है ?

जेहाद की ज़हरीली हवा फेफड़ों तक पहुंचाया है ?

जनेऊ और कुर्ते में फर्क बताके,

ईद में गले और होली में खून बहाया है,

ये दर्द बस आज का नहीं,

सदियों से रहा है, 

चुप थे, तो अच्छे थे,

बुरे बन गए गर कुछ आज कहा है,

मैं हिन्दू हूं, मुसलमान मेरा साथी है,

ये देश दीया है, तो हम तेल और बाती हैं,

मगर उन जेहादियों से नफ़रत है मुझे,

सब्र के बांध में बंधा हुआ सा सिंधू हूं,

इस पल मैं राम की मर्यादा हूं,

पर जान लो, परशुराम का भी हिंदू हूं,

मेरे भाईयों मेरे साथ चलो,

शर्मिंदगी के इन हदों को रोक देते हैं,

खुदा को बदनाम करने वालों को,

उन्हीं की आग में झोंक देते हैं,

ईद के चांद और करवाचौथ के चांद,

एक दूसरे से अलग कैसे हैं ?

कलेजे को फ़ाड़ अल्लाह कहने वालों,

क्या कुरान-ए-पाक में शब्द ऐसे हैं ?


- ऋषभ भट्ट (क़िताब : ये आसमां तेरे कदमों में है)

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