लड़खड़ाते पांव में ठोकर लगे हैं ढेर सारे,
नींद में पर स्वप्न के तिनके सहारे,
संघर्ष की दुर्बल छवि को रवि निहारे,
पीर पर्वत सी बही बन अश्रु खारे,
मार्ग में थोड़ी सरलता अब दिखाने का,
हे कर्तव्य ! यही क्षण है स्मरण आने का।
क्या अंधेरी रात में हर रौशनी को जागना है ?
या संकल्प सिद्धी के लिए बस भागना है ?
जो उमंगें कल मिली थीं आज न है,
घुटने बिछाकर सामर्थ्य भी क्या त्यागना है ?
पल यही है हर दायित्व को निभाने का,
हे कर्तव्य ! यही क्षण है स्मरण आने का।
बंध गई है स्वप्न में जीवन निराली,
धूप में कल तक किरण थी आज काली,
शोक में रोते पथिक कर हाथ खाली,
घूंट भर मदिरा लिए मद से भरी हर एक प्याली,
पथ-प्रदर्शक पथ बनो जग को जगाने का,
हे कर्तव्य ! यही क्षण है स्मरण आने का।
- ऋषभ भट्ट (क़िताब : ये आसमां तेरे कदमों में है)