मुरझाई एक फूल को तुम देख लो यारों,
अब भी वक्त है फूलों को सम्हालों,
महक न रह जायेगी दुनिया में,
अगर इक फूल और मुरझाया,
यूं हैवानियत ने इंसानियत का सिर झुकाया,
उतर जाओ सड़कों पे कि फिर उतरना न हो,
इंसाफ़ की ये लड़ाई किसी मासूम को लड़ना न हों।
तड़पती रूह से एक आवाज आई है,
किसी के जिस्म पर किसी की ज़िद समाई है,
अब आक्रोश अगर बुझ गया,
तो कल फिर मोमबत्तियां जलानी पड़ेंगी,
मंज़िल से पहले रुके जो क़दम,
तो कीमत किसी और को चुकानी पड़ेगी,
उतर जाओ सड़कों पे कि फिर उतरना न हो,
दरिंदगी की आग में फिर किसी मासूम का जलना न हो।
मना लो राखियां भर भर कलाई को,
मगर क्या बहन को आज़ाद सांसे दे सके हो?
किंतु अमर्यादित समाज में,
एक लीक आज लिख सकते हो,
कि हमारे एक व्यवहार से,
दुश्वार किसी लड़की का चलना न हो,
क़दमों के छोड़े छाप पर,
पछतावे में हाथ मलना न हो,
उतर जाओ सड़कों पे कि फिर उतरना न हो,
खिलने से पहले किसी फूल को डरना न हों।
– ऋषभ भट्ट
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