जोगनिया—राधा की पुकार
आध्यात्मिक प्रेम, विरह और अनन्य भक्ति का समवेत स्वर
मेरे मन में आओ, मन से ही पर वापस न जाओ,
दर्श दिखा आंखों को पल भर, ओझल यूं न हो जाओ,
कि तकती रह जाएं अंखियां यह मेरी,
शाम सवेरे बेरी–बेरी,
कि तड़पुँ मैं घड़ियां आने में तुमरी–
अब भी बाकी, कितनी देरी?
मेरी नींद तेरे स्पर्श की प्यासी,
खटक–खटक सुन पग–पग भागी,
मैं जागी राधा, कृष्ण लाग मोहे लागी,
मैं तेरी राधा, जोगनिया जग से हुई वैरागी।
उद्धव को तुम भेज दिए प्रिय, मुझसे भी मिलने आओ तो,
दिन बीत गए ज्यों तुमरे संग, वो आके प्रीत लड़ाओ तो,
मैं ही नहीं केवल, यहां गोकुल में,
आस लिए गलियां–गलियां सारी,
बैठ रहीं बेचैनी में, उठना दुर्लभ–
तकते–तकते दिन रैन दुआरी,
प्रस्थान नहीं तब छेड़ा मुझको,
जितनी विरह ये गाए तुझको,
अचरज मोहे निर्धनता सी लगी,
हे मेरे धन, जोगनिया जग से हुई वैरागी।
चंद्र बदन को, नित नैना प्रतिमा सी पूजें,
दूर देश से तेरी तान मधुर, कर्णों में गूंजे,
निर्झर बहती करुणा से,
निठुराईं बन बावरिया बोलूं,
क्षण ऐसा हो मैं पलक गिराऊं,
तुम्हरी दरस जस नैना खोलूं,
अर्ध अंग प्रिय इस नाम किए,
स्वास लो तुम मेरे प्राण जिएं,
अधर मेरे से गाते तुम्हीं ओ रागी,
स्वर सुंदर तुमपे, जोगनिया जग से हुई वैरागी।
अखिल विश्व का भार उठाए, थक जाओ तो आना,
मैंने प्रेम उगाए हैं, बगिया के इस फूलों से हर्षाना,
अश्रु गिरे हर जस बीज बटोरे,
महि कण–कण से तृण–तृण जोड़े,
घट–घट फल रस में डूब चुकी,
माखन प्रिय अब हिय घट फोड़ें,
मैं तुमरी हूं यह ब्रह्मांड तुम्हारो,
बन माली, मन विहार संवारो,
श्रृंगार मेरी कर जाएं तुमको अनुरागी,
ओ कान्हा मेरे, मैं जोगनिया जग से हुई वैरागी।
🕯️ कविता का विस्तृत भावार्थ (विस्तृत — लम्बा और गहन)
सार-प्रवेश: यह कविता शृंगार रस और भक्ति-रस का घनिष्ठ मेल है — बाहरी दृश्य (कृष्ण की मुरली, माखन, बांसुरी) तथा आंतरिक अनुभूति (विरह, वैराग्य, समर्पण) दोनों को एक साथ उकेरती है। राधा का स्वर व्यक्तिगत प्रेम से उठकर सार्वभौमिक भक्ति बन जाता है — जहाँ प्रेम, पीड़ा और समर्पण तीनों मिलकर साधना का रूप लेते हैं। नीचे स्तवक-दर-स्तवक विस्तृत विवेचन दिया गया है।
प्रथम स्तवक (अनुरोध और प्रतीक्षा)
"मेरे मन में आओ, मन से ही पर वापस न जाओ" — यहाँ राधा कृष्ण से विनती करती है कि उनका दर्शन क्षणिक न रहे; 'मन में आओ' से वह बस शारीरिक दृष्टि नहीं बल्कि भाव-भवनाओं में स्थायी उपस्थिती चाहती है। "दर्श दिखा आंखों को पल भर, ओझल यूं न हो जाओ" — दर्शन की क्षणभंगुरता से जन्मी पीड़ा का वर्णन है। "कि तकती रह जाएं आँखियां यह मेरी..." — नेत्रात्मक प्रतीक्षा का रूपक; आँखें प्रतीक्षारत हैं और समय-गणना तड़पन में बदल जाती है। यहाँ द्वैत (अलग-अलग अस्तित्व) की अनुभूति है — राधा अलग है, कृष्ण अलग; पर हर छंद का अंत समर्पण की पुकार में बदलता है —"कितनी देरी?" में विरह का शिखर दिखता है।
द्वितीय स्तवक (नींद-उजड़ा स्पर्श और जोगनिया चरित्र)
"मेरी नींद तेरे स्पर्श की प्यासी" — नींद तक कृष्ण के स्पर्श की चाह में विफल; आत्मिक तृष्णा का चित्रण। "मैं जागी राधा, कृष्ण लाग मोहे लागी" — जागृति की आध्यात्मिक स्थिति; अब राधा के जागरण का कारण केवल संसारिक नहीं, बल्कि आत्मिक अनुराग है। शब्द 'जोगनिया' यहाँ केंद्रीय है — यह पारंपरिक 'जोगिन/जोगिनी' से निकला लगता है, जिसका भाव है योग-मार्गी या वैराग्य की ओर झुकी हुई भक्त व्यक्ति। राधा का स्वयं को 'जोगनिया' घोषित करना बताता है कि प्रेम ने उसे संसार से विरक्त कर दिया; वह भौतिक सुखों से ऊपर उठकर कृष्ण की ओर चरम समर्पण में है।
तृतीय-चतुर्थ स्तवक (उद्धव संदर्भ व गोकुल की प्रतीक्षा)
उद्धव का नाम ऐतिहासिक/पौराणিক प्रसंग से जुड़ता है — उद्धव अक्सर कृष्ण का संदेशवाहक या प्रिय मित्र माना गया है। "उद्धव को तुम भेज दिए प्रिय" — यह अनुरोध और विनती की शैली है कि जैसे उद्धव को संदेश भेज कर कृष्ण को बुलाया जा सके। "मैं ही नहीं केवल, यहां गोकुल में/आस लिए गलियां–गलियां सारी" — इस पंक्ति में व्यक्तिगत विरह का आकार विस्तृत होकर सामूहिक विरह में बदल जाता है; गोकुल का पुरा समुदाय कृष्ण के प्रतीक्षा में है। यह भाव कवि के चौड़े समाज–दृष्टिकोण (collective longing) को इंगित करता है, न कि केवल राधा का अकेला कष्ट।
पंचम-षष्ठ स्तवक (दर्शन-सौंदर्य और संगीत का प्रभाव)
"चंद्र बदन को, नित नैना प्रतिमा सी पूजें" — कृष्ण के चंद्रमुखी रूप का उपमा; उनका सौंदर्य मूर्ति-तुल्य पूजनीय है। "तेरी तान मधुर, कर्णों में गूंजे" और "निर्झर बहती करुणा से" — बांसुरी की तान और करुणा-निर्झर का मेल; संगीत यहाँ केवल अलंकरण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधन है जो भक्ति-भाव को और तीव्र करता है। "क्षण ऐसा हो मैं पलक गिराऊं, तुम्हरी दरस जस नैना खोलूं" — दर्शन की तीव्रता का क्षण जब भौतिक आँखें भी दिव्य दृष्टि पाती हैं।
षष्ठ-अर्धांग का बिंब
"अर्ध अंग प्रिय इस नाम किए" — 'अर्धांग' (अर्धांगिनी) का उल्लेख पारंपरिक अर्थ में प्रीत का सूचक है, पर गहरे अर्थ में यह आत्मा और परमात्मा की एकात्मता का रूपक भी कहा जा सकता है। राधा यहाँ न केवल प्रेमिका है, बल्कि आत्मा की प्रतिकूलता को पार कर परमात्मा-समर्पण का प्रतिनिधित्व करती है।
सप्तम-अष्टम स्तवक (ब्रह्मांडीय समर्पण और माखन-बंधन)
"अखिल विश्व का भार उठाए, थक जाओ तो आना" — यह पंक्ति कृष्ण की दैवीय महत्ता और उसकी मानव-भावनाओं को एक साथ लाती है; कृष्ण का सार्वभौमिक दायित्व मानवीय संवेदना के साथ जुड़ता है। राधा का कहना—"मैंने प्रेम उगाए हैं, बगिया के इस फूलों से हर्षाना"— यह दर्शाता है कि उसके अश्रु, प्रेम और साधना ने जीवन-उपज उत्पन्न की है। "माखन प्रिय अब हिय घट फोड़ें" — माखन (butter) का संदर्भ भगवान कृष्ण की बाल-लीला से जुड़ा याद दिलाता है; सरल और लोक-आधारभूत इमेजरी जो भक्ति को ग्राम्य-निकट बनाती है।
आध्यात्मिक और दार्शनिक व्याख्या
कविता की ऊँचाई यह है कि यह शृंगार (राधा–कृष्ण का प्रेम) और वैराग्य (जोगनिया) को साथ प्रदर्शित करती है — अर्थात प्रेम ही साधना बनकर वैराग्य का मार्ग बन रहा है। भक्ति-सिद्धांत में इसे 'मधुर भक्ति' कहा जाता है जहाँ प्रेम-रूपक के माध्यम से आत्मा (राधा) और परमात्मा (कृष्ण) की एकरूपता का अनुभव कराया जाता है। कुछ पठन (पारंपरिक वैचारिक संदर्भ) में यह द्वैत-भाव (अलग आत्मा और परमात्मा) का विरह ही है; अन्य, अद्वैत पठन इसे आत्मा का परमात्मा से विलीन होना समझते हैं। कविता दोनों अर्थों को सहने की क्षमता रखती है — यही उसकी खूबसूरती है।
भाषिक और काव्य-तकनीकी तत्व
— पुनरावृत्ति (refrain): "जोगनिया जग से हुई वैरागी" — यह रचना को एक मंत्र-सदृश लय देती है, जो बार-बार लौटकर पाठक के हृदय में भक्ति का भाव उभारती है।
— रूपक और उपमाएँ: 'चंद्र बदन', 'माखन', 'बांसुरी', 'पलक गिराना' — ये सभी पारंपरिक रूपक हैं जो कृष्ण-लीला और राधा-भक्ति के चिरस्थायी प्रतीक बने हुए हैं।
— ध्वनि-सौंदर्य: अलंकार (अनुप्रास) और लयात्मकता पाठ में स्पष्ट है — जैसे "खटक–खटक सुन पग–पग" में तुकबंदी और ध्वनि अनुकरण का उपयोग।
पाठनीय/स्फुटन सुझाव (Recitation & प्रयोग)
— पाठ करते समय प्रमुख अंशों (refrains) पर धीमा, भावपूर्ण राग दें; "जोगनिया" और "वैरागी" को बार-बार मुखर करें।
— संगीत: हल्की मृदु बांसुरी या सारंगी पृष्ठभूमि और धीमा ताल कविता के भाव को बढ़ाएगा।
— ध्यान-बिंदु: उपरोक्त पंक्तियों को ध्यान के रूप में पढ़कर प्रत्येक पंक्ति के अंत में 4–5 सेकंड ठहराव रखें — इससे अर्थ गहरा लगता है।
आधुनिकप्रसंग और पाठक हेतु संदेश
— आधुनिक पाठ में राधा का यह स्वर व्यक्तिगत विरह से बढ़कर आत्म-उपासन का पाठ देता है: वह हमसे कहती है कि सच्चा प्रेम अपार समर्पण और आंतरिक परिवर्तन है।
— पाठक को चुनौती: अपनी रोज़मर्रा की छोटी-छोटी आकांक्षाओं पर विचार करें — क्या वे सांसारिक हैं या भीतर से आने वाली आत्म-लक्ष्मी? कविता हमें आत्म-जिज्ञासा के लिए बुलाती है।
निष्कर्ष
यह काव्य-रचना भाव-समृद्ध, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदर्भों से घनी है। राधा की तड़प, उसका जोगनिया-परिचय, उद्धव-प्रसंग और माखन/बांसुरी जैसे लोक-चित्र—सब मिलकर कविता को एक बहुआयामी, समयातीत भक्ति-प्रस्तुति बनाते हैं। पाठक इसे केवल प्रेमकथा के रूप में नहीं, बल्कि आत्मा-प्रधान साधना के रूप में भी पढ़ सकते हैं।
(यदि आप चाहें तो मैं अब इस विस्तृत भावार्थ को छोटे बुलेट-पॉइंट्स, अंग्रेज़ी अनुवाद, या एक शॉर्ट-रेसिटेशन-स्क्रिप्ट में भी बदल दूँ — बताइये कौन सा फॉर्मेट चाहिए।)
🌸 संपूर्ण सार (Summary)
यह काव्य राधा-विरह की करुण-स्वर लहरी है जिसमें दर्शन की आकांक्षा, उद्धव-लीला की स्मृति, और अद्वैत-प्रेम का मधुर भाव एक सूत्र में गुँथा है। राधा का जोगनिया होना जग-वैराग्य का नहीं, बल्कि कृष्ण-आश्रय का आलोक है—जहाँ भक्त स्वयं को ब्रह्मांड सहित श्यामचरणों में समर्पित कर देता है।