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हूं लिख रहा जिन दौर को उनसे बड़ा अंजान हूं,
पर प्रश्न कुछ हैं पल रहे जिनसे बना नादान हूं,
कुछ पंक्तियां मेरी समझ से दूर हैं,
हूं सोचता! पी लूं इन्हे भर सांस में,
पर सांस भी हर आस से मजबूर है,
मजबूर से कुछ सांस हैं जिनमें सुबह की आस है,
ये रात प्यारी कहां मुझको जरा सी प्यास है,
फिर भी डुबाती बात ये जिनसे लिखे कुछ आज हैं,
पन्ने बदलती रात ये कितने बदल दी राज है,
हंसती सुबह में शाम कर जगमग लिखें कुछ नाम हैं,
है चांद भी रौशन कहां? हर पल यहां बस शाम है,
बस सोचता पी लूं जरा उन रात के कुछ बात को,
स्याही बहे कुछ नाम पर ले सांस में कुछ रात को।
- Rishabh Bhatt
This poem is very nice and likely
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