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"झिलमिल पनिया में सोना सुरुज देव ठाणे मुस्काए
अरघ उतारे छठ वरतिया दूनू रे हाथे सुपवा उठाय"
घाटों पर वेदी के सामने बैठ, जब मां
अपने बेटों के लिए इन लोकगीतों को गाती हैं,
तो इसके आगे स्वयं ईश्वर को भी
भाव विभोर होना पड़ता है,
ऐसी मान्यता है कि द्वापर युग में मां कुन्ती ने भी,
अपने पुत्रों के लिए छठी का व्रत किया था,
त्रेता युग में वनवास से लौटने के बाद
मां सीता ने भी इस व्रत को किया,
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को पड़ने वाला यह महापर्व
अपनी एक और मान्यता के लिए और भी
लोकप्रिय हो जाता है....
कथा है कि, राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी ने
एक पुत्रकामेष्ठि यज्ञ करवाया,
इस यज्ञ को महर्षि कश्यप ने सम्पन्न किया, और
राजा प्रियव्रत को एक पुत्र प्राप्त हुआ,
दुर्भाग्यवश यह नवजात शिशु मृत था....,
दुःखी होकर राजा ने ईश्वर की प्रार्थना की
और उनके समक्ष स्वयं मां देवसेना आईं,
जिनकी आराधना से राजा को पुत्र सुख प्राप्त हुआ....,
इन्हीं मां देवसेना को मां छठी भी कहा गया।