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गिर गए दाने कहीं
चावल के ही कुछ चार थें,
पर थम गईं दो मुठ्ठीयां ले भूख उनकी
चल पड़ीं लेकर कटोरा हाथ में
ओढ़ कर गीली चदरिया,
डूबकर भीगे पसीने में
लिए उम्मीद को,
रोती - हंसाती...
टूक भर होकर कलेजे से निकलतीं
नींद में रोटी तले इक स्वपन को
अपने डगर पर खींच लाती,
हंसती - रुलाती...
पूस की जाड़े लिए तस्वीर को
मक्के निहारे!
बाट को खाली लिए दुःख के सहारे,
कतरनों की जोड़ से
सिलकर लगोंटा ओढ़ के,
धूप की गर्मी तपन में पेट को घुटनें ढकें,
पर भूख है जाती नहीं दाने सही कुछ चार ही...
- Rishabh Bhatt